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________________ भगवती सूत्र--श. ५ उ. १ हेमन्तादि ऋतुएँ और अयनादि ७६७ सम्बन्ध में भी पूर्वोक्त प्रकार से समझना चाहिए। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! जब जम्बद्वीप के दक्षिणार्द्ध में प्रथम अवसपिणी होती है, तब क्या उत्तरार्द्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी होती है और जब उत्तरार्द्ध में प्रथम अवसर्पिणी होती है, तब क्या जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में अवपिणी नहीं होती, उत्सपिगी नहीं होती, किंतु हे दीर्घजीविन् श्रमण ! वहाँ अवस्थित काल होता है ? १४ उत्तर-हाँ, गौतम ! इसी तरह होता है। यावत् पहले की तरह सारा वर्णन कहना चाहिए। जिस प्रकार अवपिणी के विषय में कहा है, उसी तरह उत्ससिणी के विषय में भी कहना चाहिए । विवेचन-तीन ऋतुओं का एक 'अयन' होता है। दो 'अयन' का एक संवत्सर (वर्ष) होता है। पांच संवत्सर का एक 'युग' होता है । बीस युग का एक वर्षशत (सौ वर्ष) होता है । दस वर्षशत का एक वर्षसहस्र (एक हजार वर्ष) होता है । सौ वर्ष सहस्रों का एक वर्षशतसहस्र (एक लाख वर्ष) होता है । चौरासी लाख वर्षों का एक 'पूर्वांग' होता है । एक पूर्वाग को अर्थात् चौरासी लाख को चौरासी लाख से गुणा करने से एक 'पूर्व' होता है । एक पूर्व को चौरासी लाख से गुणा करने से एक 'त्रुटितांग होता है । एक त्रुटितांग को चौरामी लाख से गुणा करने पर एक 'त्रुटित' होता है । इस प्रकार पहले की राशि को चौरासी लाख से गुणा करने पर उत्तरोत्तर राशियाँ बनती जाती हैं । वे इस प्रकार हैं-अटटांग, अट, अववांग, अवव, हुहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिकुरांग, अर्थनिकुर, अयुतांग अयुत, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग,चूलिका, गीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका । शीर्षप्रहेलिका १९४ अङ्कों की संख्या है । यथा-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५ ७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ इन चौपन अङ्कों पर एक सौ चालीस बिन्दियाँ लगाने से शीर्षप्रटेलिका संख्या का प्रमाण आता है। यहाँ तक का काल गणित का विषय माना गया है । इसके आगे भी काल का परिमाण बतलाया गया है, परन्तु वह गणित का विषय नहीं है, किंतु उपमा का विषय है । यथा-पल्योपम, सागरोपम आदि । अवसर्पिणी काल, जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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