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________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ १ ईशानेन्द्र सिद्ध होंगे 1 'धन' शब्द का अर्थ करते हुए यहाँ चार प्रकार का धन बतलाया गया है - गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य । गणिम-जिस चीज का गिनती से व्यापार होता है उसे 'गणिम' कहते हैं, जैसे-नारियल आदि, धरिम-तराजू में तोल कर जिस वस्तु का व्यवहार अर्थात् लेन देन होता है, उसे 'धरिम' कहते हैं । जैसे-गेहूँ, चावल, शक्कर आदि । मेय- जिस चीज का व्यवहार पायली (प्रस्थक) आदि से माप कर या हाथ, गज आदि से नाप कर होता है, उसे 'मेय' कहते हैं । जैसे कपड़ा आदि । जहाँ पर धान वगैरह पायली (प्रस्थक) आदि से माप कर लिये और दिये जाते हैं, वहाँ पर वे भी 'मेय' हैं। परिच्छेद्य गुण की परीक्षा करके जिस चीज का मूल्य निश्चित किया जाता है और तदनुसार उनका लेन देन होता है उसे 'परिच्छेद्य' कहते हैं । जैसे-रत्न आदि जवाहरात । बढ़िया वस्त्र आदि जिनके गुण की परीक्षा प्रधान है, वे भी 'परिच्छेद्य' गिने जाते हैं । ताली गृहपति ने प्राणामा' • प्रव्रज्या अंगीकार की । 'प्राणामा' प्रव्रज्या का यह अर्थ है कि जो व्यक्ति 'प्राणामा' प्रव्रज्या को अंगीकार करता है, वह जिस किसी प्राणी को जहाँ कहीं भी देखता है, वहीं उसे प्रणाम करता है । ५९४ १९ प्रश्न - ईसाणस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?. १९ उत्तर - गोयमा ! साइरेगाहं दो सागरोवमाहं ठिई पण्णत्ता । ● वर्तमान समय में भी वैदिक लोग 'प्राणामा' प्रव्रज्या के व्रत को अंगीकार करते हैं। इस व्रत में दीक्षित बने हुए सज्जन के विषय में 'सरस्वती' नाम की मासिक पत्रिका भाग १३ अक १ पृष्ट १८० में इस प्रकार के समाचार छपे हैं "इसके बाद सब प्राणियों में भगवान् की भावना दृढ़ करने और अहंकार छोड़ने के इरादे से प्राणीमात्र को ईश्वर समझ कर आपने साष्टांग प्रणाम करना शुरू किया। जिस प्राणी को आप आगे देखते, उसी के सामने उसके पैरों पर आप जमीन पर लेट जाते। इस प्रकार ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक और गौ से लेकर गधे तक को आप साष्टांग नमस्कार करने लगे । ( सरस्वती मासिक ) यहाँ पर बतलाई हुई 'प्राणामा' प्रव्रज्या और उपरि लिखित । यह विनयवादी मत है । ३६३ पाषण्डी मत में इनके ३२ भेद अभाव में ऐसी प्रवृत्ति की जाती हैं। वास्तव में तो गुण प्रकट होने पर समाचार, ये दोनों समान मालूम बतलाये गये हैं । सम्यग्ज्ञान के होते ही आदर दिया जाना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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