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________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. ६ गृहपति को भाण्ड आदि से लगने वाली क्रिया ८४९ विक्रेता को मिला नहीं, तब तक हे भगवन् ! उस खरीददार को उस धन से कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? और विक्रेता को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम! उपरोक्त स्थिति में यह आलापक उपनीत भाण्ड के समान समझना चाहिए। यदि धन उपनीत हो, तो जिस प्रकार अनुपनीत भाण्ड के विषय में पहला आलापक कहा है, उस प्रकार समझना चाहिए। पहला और चौथा आलापक समान है तथा दूसरा और तीसरा आलापक समान है । विवेचन - पहले प्रकरण में कर्मबन्ध की क्रिया के विषय में कहा गया है अब अन्य क्रियाओं के विषय में कहा जाता है । किसी किराने के व्यापारी का यदि कोई पुरुष, किराणा चुरा ले जाय, तो उस far की खोज करते हुए उसको आरम्भिकी आदि चार क्रियाएँ लगती हैं, मिथ्यादर्शनप्रत्यfant for कदाचित् लगती है और कदाचित् नहीं लगती है अर्थात् यदि वह व्यापारी मिथ्यादृष्टि है. तो उसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लगती है और यदि वह मिथ्यादृष्टि नहीं है, किन्तु सम्यग्दृष्टि है तो उसे मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया नहीं लगती है । खोज करते हुए उस व्यापारी को वह किराणा मिल जाय, तो किराणा मिल जाने के बाद वे सब क्रियाएं अल्पहल्की हो जाती हैं, क्योंकि खोज करते समय वह व्यापारी विशेष प्रयत्न वाला होता है, इसलिए वे सब क्रियाएँ होती हैं और जब वह चोरी गया हुआ किराणा मिल जाता है, तब उसकी खोज करने रूप प्रयत्न बन्द हो जाता है, इसलिए वे सब सम्भवित क्रियाएँ हल्की हो जाती हैं । खरीददार ने उस विक्रेता व्यापारी से किराणा खरीद लिया और अपने सौदे को पक्का करने के लिए उसने साई ( बयाना ) भी दे दिया, किन्तु उसने वह किराणा दुकान से उठाया नहीं, इस स्थिति में खरीददार को उस किराणे सम्बन्धी क्रियाएँ हल्के रूप में लगती हैं और उस विक्रेता के यहां अभी किराणा पड़ा हुआ है, वह उसका होने से उसे वे क्रियाएँ भारी रूप में होती हैं । जब किराणा खरीददार को सौंप दिया जाता है और वह उसे वहाँ से उठा लेता है एवं अपने घर ले आता है, तब उस स्थिति में उस किराणा सम्बन्धी वे सब क्रियाएँ उस खरीददार को मारी रूप में लगती हैं और उस विक्रेता को वे सब सम्भवित क्रियाएँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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