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भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया
उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! प्रमाद के कारण और योग निमित्त (शरीरादि की प्रवृत्ति)से श्रमण निर्ग्रन्थों को क्रिया होती है।
विवेचन-अगले प्रकरण में क्रिया के विषय में कहा गया है । अब क्रियाजन्य कर्म और कर्म जन्य वेदना के सम्बन्ध में कहा जाता है। 'क्रियते इति क्रिया' अर्थात् जो की जाय, उसे क्रिया कहते हैं । क्रिया से कर्म उत्पन्न होता है । इसलिए जन्य और जनक में अभेद की विवक्षा करने से कर्म भी क्रिया कहा जा सकता है । अथवा यहाँ 'क्रिया' शब्द का अर्थ 'कर्म' है और कर्म के अनुभव को 'वेदना' कहते हैं । कर्म के बाद वेदना होती है, क्योंकि कर्मपूर्वक ही वेदना होती है । कर्म का सद्भाव पहले होता है और उसके बाद वेदना (कर्म का अनुभव) होती है ।
अब क्रिया का स्वामित्व बतलाते हुए कहा जाता है कि श्रमण निर्ग्रन्थों के भी क्रिया होती है। इसके दो कारण हैं-प्रमाद और योग । जैसे कि-प्रमाद-दुष्प्रयुक्त शरीर की चेष्टा जन्य कर्म । योग से-जैसे कि ईर्यापथिकी (मार्ग में चलने की) क्रिया से लगने वाला कर्म । अतः प्रमाद और योग, इन दो कारणों से श्रमण निर्ग्रन्थों के भी क्रिया होती है।
जीव की एजनादि क्रिया
१० प्रश्न-जीवे णं भंते ! सया समियं एयइ, वेयइ, चलइ, फंदइ, घट्टइ, खुम्भइ, उदीरइ, तं तं भावं परिणमइ ? - १० उत्तर-हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं एयइ, जाव-तं तं भावं परिणमइ।
११ प्रश्न-जावं च णं भंते ! से जीवे सया समियं जावपरिणमइ, तावं च णं तस्स. जीवस्स अंते अंतकिरिया भवह ?
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