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________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की ए जनादि क्रिया ६५७ ११ उत्तर-णो इणढे समढे। १२ प्रश्न-से केणटेणं एवं वुच्चइ-जावं च णं से जीवे सया समियं जाव-अंते अंकिरिया ण भवइ ? ___१२ उत्तर-मंडियपुत्ता ! जावं च णं से जीवे सया समियं जावपरिणमइ, तावं च णं से जीवे आरंभइ, सारंभइ, समारंभइ; आरंभे वट्टइ, सारंभे वट्टइ, समारंभे वट्टइ; आरंभमाणे, सारंभमाणे, समारंभमाणे, आरंभे वट्टमाणे, सारंभे वट्टमाणे, समारंभे वट्टमाणे बहूणं पाणाणं, भूयाणं, जीवाणं, सत्ताणं, दुक्खावणयाए, सोयावणयाए, जूरावणयाए, तिप्पावणयाए, पिट्टावणयाए, परियावणयाए वट्टइ, से तेणटेणं मंडियपुत्ता ! एवं वुचइ जावं च णं से जीवे सया समियं एयइ जाव-परिणमइ, तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया ण भवइ। .' कठिन शब्दार्थ-समियं-समित-परिमाण पूर्वक, एयइ-कंपता है, वेयइ-विविध प्रकार से कंपता है, चलइ-चलता है, फंदइ-स्पन्दन क्रिया करता है-थोड़ा चलता है, घट्टइ-घटित होता है-सब दिशाओं में जाता है, खुन्मइ-क्षोभ को प्राप्त होता है, उदीरइ-उदीरता हैप्रबलता पूर्वक प्रेरणा करता है, परिणमइ-परिणमता है--उन उन भावों को प्राप्त होता है, आरंभइ-आरम्भ करता है अर्थात् पृथ्वीकायादि को उपद्रव करता है, सारंमइ-संरम्भ करता है अर्थात् पृथ्वीकायादि जीवों के नाश का संकल्प करता है, समारंभइ-समारम्भ करता है अर्थात् पृथ्वीकायादि जीवों को दुःख पहुँचाता है, वट्टइ-वर्तता है, सोयावणयाएशोक उत्पन्न करके, जूरावणयाए-झूराने-रुलाने, तिप्पावणयाए-आंसू गिराने, पिट्टावणयाएपिटवाना, अंतकिरिया-अन्तक्रिया अर्थात् मुक्ति । भावार्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, सदा समित रूप से परिमाण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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