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भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया
पूर्वक कंपता है ? विविध प्रकार से कंपता है ? चलता है अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता ? स्पन्दन क्रिया करता है अर्थात् थोड़ा चलता है ? घटित होता है अर्थात् सब दिशाओं में जाता है ? क्षोभ को प्राप्त होता है ? उदीरता है अर्थात् प्रबलतापूर्वक प्रेरणा करता है ? और उन उन भावों में परिणमता है ?
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१० उत्तर - हाँ, मण्डितपुत्र ! जीव सदा परिमित रूप से कंपता है, यावत् उन उन भावों में परिणमता है ।
११ प्रश्न - हे भगवन् ! जब तक जीव, परिमित रूप से कंपता है, यावत् उन उन भावों में परिणमता है तब तक क्या उस जीव की अन्तिम समय में ( मरण समय में ) अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है ?
११ उत्तर - हे मण्डितपुत्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि सक्रिय जीव की अन्त क्रिया नहीं होती है ।
१२ प्रश्न - हे भगवन् ! जब तक जीव, परिमित रूप से कंपता है यावत् तब तक उसकी अन्तक्रिया नहीं होती है, ऐसा कहने का क्या कारण है ?
१२ उत्तर - हे मण्डितपुत्र ! जब तक जीव, सदा परिमित रूप से कंपता है, यावत् उन उन भावों में परिणमता है, तब तक वह जीव, आरम्भ करता है, संरम्भ करता है, समारम्भ करता है, आरम्भ में प्रवर्तता है, संरम्भ में प्रवर्तता है, समारम्भ में प्रवर्तता है, आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ करता हुआ, आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में प्रवर्तता हुआ जीव, बहुत से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख पहुँचाने में, शोक कराने में, झूराने में, टपटप आँसू गिराने में, पिटाने में, त्रास उपजाने में और परिताप कराने में प्रवृत्त होता है, निमित्त कारण बनता है । इसलिए हे मण्डितपुत्र ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जब तक जीव, सदा परिमित रूप से कंपात है, यावत् उन उन भावों में परिणमता है, तब तक वह जीव, मरण समय में अन्तक्रिया नहीं कर
सकता है ।
विवेचन - यहां क्रिया का प्रकरण होने से जीव की एजनादि क्रिया के विषय में कहा जाता है । यद्यपि यहाँ सामान्य जीव का कथन किया गया है, तथापि यहां सयोगी (मनोयोगी,
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