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________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया ६५९ वचनयोगी, काययोगी) जीव का ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अयोगी जीव के एजनादि क्रियाएं नहीं होती हैं । सयोगी जीव एजन (कम्पन), विशेष एजन (विशेष कम्पन) चलन (एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना), स्पन्दन (थोड़ा चलना),घट्टन (सब दिशाओं में चलना), क्षुभित होता उदीरण आदि क्रियाएँ करता है और उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन प्रसारण आदि पर्यायों को प्राप्त होता है। पूर्वोक्त क्रियाओं को करनेवाला जीव सकल कर्म क्षय रूप अन्तक्रिया नहीं कर सकता है । इसका कारण यह है कि उपर्युक्त क्रियाएँ करने वाला जीव आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ करता है, इनमें प्रवृत्त होता है । आरम्भादि करता हुआ तथा आरम्भादि में प्रवृत्त होता हुआ जीव, बहुत से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को पीड़ित करता है, दुःखित करता है, त्रास पहुंचाता है, यावत् उनकी हिंसा करता है । संरम्भ आदि का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है संकप्पो संरंभो, परितावकरो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवओ सम्वनया णं विसुद्धाणं ॥ अर्थ-पृथ्वीकायादि जीवों की हिंसा करने का संकल्प करना 'संरम्भ' कहलाता है। उन्हें परिताप उपजाना-सन्ताप देना 'समारम्भ' कहलाता है । उन जीवों की हिंसा करना 'आरम्भ' कहलाता है । यह सर्व विशुद्ध नयों का मत है। क्रिया और कर्ता में कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद होता है। यहाँ पर 'आरंभ, संरम्भ, समारम्भ करता हुआ जीव' इस वाक्य द्वारा क्रिया और कर्ता में अभेद (एकता) वतलाया गया है । और 'आरम्म, संरम्भ, समारम्भ में प्रवर्तता हुआ जीव' इस वाक्य द्वारा क्रिया और कर्ता में भेद बतलाया गया है। 'आरंभमाणे, आरंभे वट्टमाणे' इत्यादि क्रियाओं का जो दूसरी बार प्रयोग किया गया है, वह उपर्युक्त भेदाभेद की बात को पुष्ट करने के लिए किया गया है । ___ १३ प्रश्न-जीवे णं भंते ! सया समियं णो एयह जाव-णो तं तं भावं परिणमइ ? १३ उत्तर-हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं जावणो परिणमइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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