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भगवती
सूत्र - श. ५ उ. ४ शक्रदूत हरिनैगमेषी देव
११ प्रश्न - हे भगवन् ! नींद लेता हुआ और प्रचला लेता हुआ जीव, कितनी कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता ?
११ उत्तर - हे गौतम! निद्रा अथवा प्रचला लेता हुआ जीव, सात कर्मों की प्रकृतियों का अथवा आठ कर्मों की प्रकृतियों का बन्ध करता है । इस तरह एक वचन की अपेक्षा वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डक कहना चाहिए । . जब उपरोक्त प्रश्न बहुवचन आश्री अर्थात् बहुत जीवों की अपेक्षा पूछा जाय, तब उसके उत्तर में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर कर्मबन्ध सम्बन्धी तीन भांगे कहने चाहिए ।
विवेचन- - जिस नींद में सोया हुआ प्राणी सुख पूर्वक जाग सके, उसे 'निद्रा' कहते हैं और खड़े खड़े प्राणी को जो नींद आवे, उसे 'प्रचला' कहते हैं । निद्रा और प्रचला ये दोनों दर्शनावरणीय कर्म के उदय से होती है । छद्मस्थ जीव के दर्शनावरणीय कर्म का सद्भाव है । इसलिये उसे निद्रा और प्रचला आती है । केवली भगवान् के दर्शनावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हो चुका है । इसलिये उन्हें निद्रा और प्रचला नहीं आती ।
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शक्रदूत हरिनैगमेषी देव
१२ प्रश्न - हरी णं भंते ! हरिणेगमेसी सकदूए इत्थीगब्भं संहरमाणे किं गभाओ गन्धं साहरइ ? गभाओ जोणिं साहरइ ? जोणीओ गव्र्भ साहरइ ? जोणीओ जोणिं साहरइ ?
१२ उत्तर - गोयमा ! णो गन्भाओ गव्र्भ साहरड़, णो गभाओ जोणिं साहरइ, णो जोणिओ जोणिं साहरइ, परामुसिय, परामुसिय अव्वाबाहेणं अव्वावाहं जोणिओ गब्र्भ साहरइ ?
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