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भगवती सूत्र--- . ६ उ. ७ गणनीय काल
एक 'स्तोक' होता है। मात स्मोक का एक 'लव' होता है । ७७ लव का एक 'मुहूर्त' होता है। अथवा ३७७३ उच्छ्वा : का एक 'महूर्त' होता है। इस मुहूर्त के अनुसार तीस मुहूर्त का एक 'अहोरात्र' होता है । पन्द्रह अहोरात्र का एक 'पक्ष' होता है । वो पक्ष का एक 'मास' होता है। दो मास की एक 'ऋतु' होती है । तीन ऋतुओं का एक 'अयन' होता है। दो अयन का एक संवत्सर' (वर्ष) होता है। पांच वर्ष का एक 'युग' होता है । बीस युग का एक 'वर्षशत' (सौ वर्ष) होता है । दस वर्षशत का एक वर्षसहस्र' (एक हजार वर्ष) होता है। सौ वर्ष सहस्रों का एक 'वर्षशतसहस्र' (एक लाख वर्ष) होता है । ८४ लाख वर्षों का एक 'पूर्वाग' होता है। ८४ लाख पूर्वांग का एक 'पूर्व' होता है। ८४ लाख पूर्व का एक 'त्रुटितांग' होता है और ८४ लाख त्रुटितांग का एक 'टित' होता है। इस प्रकार पहले की राशि को ८४ लाख से गणा करने से उत्तरोत्तर राशियां बनती हैं । वे इस प्रकार हैं-अटटांग, अटट, अववांग, अवय, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपूरांग, अर्थनिपूर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयप्त, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका। इस संख्या तक गणित है। यह गणित का विषय है। इसके बाद औपमिक काल है, अर्थात् वह उपमा का विषय है, गणित का नहीं।
विवेचन-पहले के प्रकरण में धान्यों की योनि की काल-स्थिति कही गई है। अब इस प्रकरण में काल स्थिति रूप मुहुर्तादि का स्वरूप कहा जाता है । ऊपर भावार्थ में गणमीय-गणित योग्य काल परिमाण के ४६ भेद कहे गये हैं। काल के सूक्ष्मतम भाग को 'समय' कहते हैं । असंख्यात समय की एक श्रावलिका होती है। २५६ आवलिका का निगोद का एक क्षुल्लक भव ग्रहण होता है, जिसमें १७ से कुछ अधिक क्षुल्लक भव ग्रहण, एक उच्छपास निःश्वामकाल में होते हैं । सात उच्छ्वास का एक 'स्तोक' होता है और सात स्तोक का एक 'लव' होता है। लव को सात गुणा करने से एक लव के ४९ उच्छ्वास होते हैं। इन ४९ उच्छ्वासों को ७७ लव के साथ गुणा करने से (क्योंकि ७७ लव का एक मुहर्त होता है)३७७३ संख्या होती है। यह एक मुहूर्त के उच्छ्वासों की संख्या है । शीर्षप्रहेलिका
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