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भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ अल्पायु और दीर्घायु का कारण
करने में जो प्राणातिपात होता है और मिथ्याभाषण करके जो साधु को आधाकर्मी आहार दिया जाता है, उन्हीं से अल्प आयु का बंध होता है। दूसरे प्राणातिपात और मिथ्याभाषण से नहीं?
समाधान-यद्यपि इस सूत्र में सामान्य रूप से प्राणातिपात और मिथ्याभाषण से अल्प आयु का बंध होना कहा है, तथापि इनका विशेषण अवश्य कहना होगा । अर्थात् आधाकर्मी आहार तैयार करने में जो प्राणातिपात होता है और झूठ बोलकर जो वह आधाकर्मी आहार साधु को दिया जाता है, उन्हीं से अल्प आयु का बंध होता है, यह कहना ही होगा। क्योंकि इस सूत्र के आगे के तीसरे सूत्र में कहा है कि 'प्राणातिपात और मिथ्या भाषण से अशुभ दीर्घ आयु का बंध होता है, एक ही कारण से परस्पर विरुद्ध दो कार्य उत्पन्न होना संभव नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने से सब जगह अव्यवस्था हो जायगी। इसलिये यहां पर उन्हीं प्राणातिपात और मृषावाद का ग्रहण किया गया है-जो प्राणातिपात आधाकर्मी आहार आदि करने में होता है । तथा जो मृषावाद साधु को आधाकर्मी आहार आदि देने में लगता है।
अल्प आयु भी यहां पर दीर्घ आयु की अपेक्षा से कही गई है। किन्तु निगोद का क्षुल्लक-भव ग्रहण रूप नहीं।
इसके आगे के सूत्र में दीर्घ आयु बंध के कारणों का कथन किया गया है । जीव दया आदि धार्मिक कार्य करने वाले जीव की दीर्घ आयु होती है। क्योंकि यहाँ भी दीर्घ आय वाले पुरुष को देखकर लोग कहते हैं कि इस पुरुष ने भवान्तर में जीव-दयादि रूप धर्म कार्य किये हैं। इसीसे यह दीर्घ आयुवाला हुआ है । इससे यह निश्चित हुआ कि प्राणातिपात आदि से निवृत्त होना, देवगति का कारण होने से दीर्घ आयु का कारण है। कहा भी है--
अणुव्वय महव्वएहिं य बालतवो अकाम णिज्जराए य ।
देवाउयं निबंधइ सम्मविट्ठी य जो जीवो ।
अर्थात् जो सम्यग्ददृष्टि जीव होता हैं वह और अणुव्रतों द्वारा, महाव्रतों द्वारा, बालतप द्वारा और अकाम निर्जरा द्वारा जीव देव आयु बांधता है।
देवगति में अपेक्षा कृत दीर्घ आयु ही होती है । दान की अपेक्षा इसी सूत्र में आगे कहेंगे। समणोवासयस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं असण-पाण-खाइम
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