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________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ६ अल्पायु और दीर्घायु का कारण ८४१ अल्प आयु का प्राप्त होना कहा गया है. वह दीर्घ आयु की अपेक्षा से अल्प समझना चाहिये। क्यों कि जिनागम से संस्कृत बुद्धि वाले मुनि, किमी सांसारिक ऋद्धि संपत्तियुक्त भोगी पुरुष को अल्प आयु में मरा हुआ देख कर कहते हैं कि इसने जन्मान्तर में प्राणी-वध आदि अशुभ कर्म का अवश्य आचरण किया था। अथवा शुद्धाचारी मुनियों को अकल्पनीय अन्नादि दिया था, जिससे सांसारिक सुख सम्पन्न होकर भी यह अल्पायु हुआ है । इसलिये यह स्पष्ट है कि यहाँ दीर्घ आयु की अपेक्षा अल्प आयु पाना ही विवक्षित है । किन्तु निगोद की आयु पाना विवक्षित नहीं है । इसी प्रकार यहाँ प्राणातिपात और मृषावाद भी सभी प्रकार के नहीं लिये गये हैं, किन्तु मुनि को आहार देने के लिये जो आधाकर्मी आहार आदि तैयार किया जाता है, उसमें जो प्राणातिपात होता हैं, वह प्राणातिपात यहाँ लिया गया है और उस आधाकर्मी आहार को देने के लिये जो मिथ्या भाषण किया जाता है, वह मिथ्याभाषण यहाँ ग्रहण है, किन्तु सब प्रकार के प्राणातिपात और सर्व प्रकार के मृषावाद का यहां ग्रहण नहीं है । इस बात का खुलासा ठाणांग सूत्र के पाठ की टीका में भी किया गया है । वह टीका इस प्रकार है-- "तथाहि प्राणातिपात्याधाकर्मादि करणतो मषोक्तं वा यथा अहो साधो ! स्वार्थसिद्धमिवं भक्तादि कल्पनीयं वो नाशंका कार्या" इत्यादि। अर्थात्-'प्राणियों के विनाश के द्वारा आधाकर्मी आहार तैयार करके और झूठ बोलकर साधु को देना, यथा-'हे साधो ! यह भोजन हमने अपने लिये बनाया है । यह आपके लिये कल्पनीय है । इसमें शङ्का नहीं करनी चाहिए।' इत्यादि झूठ बोलकर आधाकर्मी आहार साधु को देना, इस प्रकार जो झूठ बोला जाता है और आधाकर्मी आहार तैयार करने में जो प्राणातिपात होता है, उन्हीं प्राणातिपात और मृषावाद से शुभ अल्प आयु का बंध होना समझना चाहिये। किन्तु सब प्राणातिपात और सब मृषावाद से नहीं। ___ शंका-यदि कोई यह शंका करे कि यहां मूलपाठ में सामान्य रूप से प्राणातिपात और मृषावाद का फल, अल्प आयु का बन्ध होना कहा है, किन्तु आधाकर्मी आहार तैयार . करने में जो प्राणातिपात (जीव हिंसा) होता है और उसे साधु को देने के लिये जो मिथ्या भाषण किया जाता है, उन्हीं से अल्प आयु का बन्ध नहीं कहा है । तथा यह भी नहीं कहा है कि दीर्घ आय की अपेक्षा से अल्प आयु बंधती है । परन्तु क्षुल्लक-भव ग्रहण रूप अल्प आयु नहीं बंधती है । फिर यह किस प्रकार मान लिया जाय कि आधाकर्मी आहार तैयार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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