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________________ भगवती मूत्र-श. ६ उ. ८ आयुष्य का बन्ध . . . . रूप जो नाम कर्म है. वह अनुभागनाम, उसके साथ निधत्त जो आयु वह 'अनुभागनामनिधताय' कहलाती है। शंका-यहाँ आयुष्य को जात्यादि नाम कर्म द्वारा क्यो विशेषित किया है ? समाधान-आयष्य की प्रधानता बतलाने के लिये आयुष्य को विशेष्य रखा गया है .. और जाति आदि नाम को विशेषण रूप से प्रयुक्त किया है । यहाँ आयुष्य की प्रधानता बतलाने का कारण यह है कि जब नरकादि आयुष्य का उदय होता है, तभी जात्यादि नाम कर्म का उदय होता है । अकेला आयु-कर्म ही नैयिकादि का भवोपग्राहक हैं। इसी बात को इसी शास्त्र में पहले इस प्रकार बतलाया गया है-- "हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव, . . नैरयिकों में उत्पन्न होता है अथवा अनैरयिक जीव, नैरयिको में उत्पन्न होता है ? उत्तरहे गातम ! नैरयिक जीव ही नैरयिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु अनरयिक जीव, नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता।" इसका तात्पर्य यह है कि नैरयिक सम्बन्धी आयुष्य के समवेदन के प्रथम समय में ही समवेदन करने वाला वह जीव, जो कि अभी नरक में पहुँचा नहीं है, किन्तु नरक में जाने के लिये विग्रह गति में चल रहा है, वह नैरयिक कहलाता है । इस समवेदन के समय ही नैरयिक आयुष्य के सहचर पञ्चेन्द्रिय जात्यादि नाम कर्मों का भी उदय हो जाता है । यहाँ मूल में प्रश्न कार ने यद्यपि आयुष्य बन्ध के छह प्रकारों के विषय में पूछा है, तथापि उत्तरकार ने आयुष्य के छह प्रकार बतलाय हैं। इसका कारण यह है कि आयुष्य और बन्ध इन दोनों में अव्यतिरेक-अभेद है, इसलिये इन दोनों में यहाँ भेद की कल्पना नहीं की है। क्योंकि जो बन्धा हुआ हो, वही 'आयुष्य,' इस व्यवहार से व्यवहृत होता है । अतएव आयुष्य शब्द के साथ बन्ध शब्द का भाव सम्मिलित है। 'हे भगवन् ! नरयिकों में कितने प्रकार का आयुबन्ध कहा गया है' ? इस प्रकार. नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौबीम ही दण्डकों का कथन करना चाहिये । यहां एक प्रकार के कर्म का प्रकरण चल रहा हैं । इसलिये कर्म से विशेषित जीवादि पदों के बारह दण्डक कहे गये हैं । १ जिन जीवों ने जातिनाम निषिक्त किया है अथवा विशिष्ट बन्धवाला किया है, वे जीव 'जाति-नाम-निधत्त' कहलाते हैं। इसी प्रकार गति-नाम-निधत्त, स्थिति-नाम-निधत्त अवगाहना-नाम-निधत्त, प्रदेश-नाम-निधत्त और अनुभाग-नाम-निधत्त, इन सबकी व्याख्या भी जान लेनी नाहिये । विशेषता यह है कि जात्यादि नामों की जो स्थिति, जो प्रदेश तथा जो अनुभाग हैं, वे स्थित्यादि नाम अवगाहना नाम और शरीर नाम, यह एक दण्डक वैमानिकों तक जान लेना चाहिये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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