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भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि
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याइता दोच्चं पि वेउब्बियसमुग्यायेणं समोहण्णइ समोहणित्ता पभू णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे, असुरराया केवलकप्पं जंबूदीवं दीवं बहूहिँ असुरकुमारहिं देवेहिं, देवीहि य आइण्णं, वितिकिण्णं उवत्थडं, संथडं, फुडं, अवगाढावगाढं करेत्तए; अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरे असुरिंदे असुरराया तिरियमसंखेने दीवसमुद्दे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहि, देवीहि य आइण्णे, वितिकिण्णे, उवत्थडे, संथडे, फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए, एस णं गोयमा ! चमररस असुरिंदस्स, असुररण्णो अयमेयारूवे विसए, विसयमेत्ते बुइए, णो चेव णं संपत्तीए विउव्विंसु वा, विउव्वइ वा, विउव्विस्सइ वा ।
कठिन शब्दार्थ-सत्तुस्सेहे-सात हाथ ऊँचे शरीर वाले, के महिड्ढीए-कैसी महान् ऋद्धिवाला, के महज्जूईए-कैसी महान् द्युति-कान्तिवाले, सामाणिय-बराबरी के, पभू बिउम्वित्तए-विकुर्वणा करने में समर्थ, साणं साणं-अपने अपने, तायत्तीसगाणं-वायस्त्रिंशक पुरोहित (मन्त्री) के समान, एवतियं-इतनी, जुवई जुवाणे-युवती और युवक, चक्कस्स वा णामी अरगाउत्ता-सिआ-चक्र-पहिये की नाभि में आरे संलग्न हो-संबद्ध हो उस प्रकार, . निस्सरइ-निकालता है, परिसाडेइ-गिरा देता है, परियाएइ-ग्रहण करता है, केवलकप्पंपरिपूर्ण-पूर्ण, पभू-शक्तिमान्, आइणं-आकीर्ण-व्याप्त, वितिकिण्णं-व्यतिकीर्ण-विशेष रूप रूप से व्याप्त, उवत्थडं-उपस्तीर्ण, संथडं-संस्तीर्ण, फुडं-स्पृष्ट, अवगाढावगाढं-अवगाढावगाढ़-अत्यंत ठोस-जकड़े हुए, अदुत्तरं-इसके बाद, बुइए - कही है, संपत्तीए-संप्राप्तिक्रिया रूप से। ___ भावार्थ-२-उस काल उस समय में 'मोका' नाम की नगरी थी। उसका वर्णन करना चाहिए। उस नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व के दिशाभाग में अर्थात् ईशान कोण में नन्दन नाम का.चैत्य (उद्यान) था। उसका वर्णन करना चाहिए। उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी वहां पधारे । भगवान् के आगमन को सुन कर परिषद् दर्शनार्थ निकली । भगवान् का धर्मोपदेश सुन
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