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भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव
एगंते एडित्ता तामलित्तीणयरीए उत्तरपुरथिमे दिसिभाए णियत्तणियं मंडलं आलिहिता संलेहणा झूसणाझसिअस्स भत्त-पाणपडियाइक्खिअस्स, पाओवगयरस कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जाव-जलंते जाव-आपुच्छइ, आपुच्छित्ता तामलित्तीए एगते जाव-एडेइ, जाव-भत्त-पाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं णिवण्णे ।
कठिन शब्दार्थ-पयत्तेणं-प्रदत्त, पग्गहिएणं-प्रगृहीत, बालतवोकम्मेणं-अज्ञान पूर्वक तपस्या, अणिच्च जागरियं-अनित्य का चिन्तन करते हुए, उदग्गेणं-उदग्र, उदत्तेणं-उदात्त, दिट्राभठे-दृष्ट भाषित-देखकर बुलाये हुए अथवा देखे हुए बुलाये हुए, एगंते एडित्ता-एकांत में रखकर, नियत्तणियं मंडलं-निवर्तनिक मंडल अपने शरीर प्रमाण, आलिहिता-आलेखकर, णिवणे-निष्पन्न किया।
भावार्थ-इसके पश्चात् वह मौर्यपुत्र तामली तापस उस उदार, विपुल, प्रदत्त और प्रगृहीत बाल तप द्वारा शुष्क (सूखा) बन गया, रूक्ष बन गया यावत् ' इतना दुबला हो गया कि उसकी नाडियाँ बाहर दिखाई देने लग गई । इसके
पश्चात् किसी एक दिन पिछली रात्रि के समय अनित्य जागरणा जागते हुए तामली बाल तपस्वी को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि में इस उदार, विपुल यावत् उदग्र, उदात्त, उत्तम और महा प्रभावशाली तपकर्म के द्वारा शुष्क
और रूक्ष होगया हूं यावत् मेरा शरीर इतना कृश हो गया है कि नाडियाँ बाहर दिखाई देने लग गई है। इसलिये जबतक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और परुषकारपराक्रम है, तबतक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि कल प्रातःकाल यावत् सर्योदय होने पर मैं ताम्रलिप्ती नगरी में जाउँ । वहाँ पर दृष्टभाषित (देख कर जिनके साथ बातचीत की गई हो) पाखण्डी जन, गहस्थ, पूर्व परिचित (कुमारावस्था के परिचित) पश्चात् परिचित (विवाह होने के बाद परिचय में आये हए)और पर्याय परिचित (तपस्वी होने के बाद परिचय में आये हुए) तापसों
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