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भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता
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हैं । अर्थात् प्रमाण की अपेक्षा ऊंचे हैं और गुण की अपेक्षा उन्नत हैं । अथवा प्रासाद की अपेक्षा ऊंचे हैं और पीठ (शिखर) की अपेक्षा उन्नत हैं ।
शंका—पहले और दूसरे देवलोक के विमानों की ऊंचाई के विषय में कहा हैपंचसय उच्चत्तेणं आइमकप्पेसु होति विमाणा। एक्केक्कवुड्डि सेसे दु दुगे य दुगे चउक्के य ।।
अर्थात्-पहले और दूसरे देवलोक में विमानों की ऊँचाई पांच पांच सौ योजन है। तीसरे चौथे में छह सौ, पांचवे छठे में सात सौ, सातवें आठवें में आठ सौ और नववें दसवें ग्यारहवें बारहवें देवलोक में नौ सौ नौ सौ योजन ऊँचे विमान हैं। नवग्रैवेयक में एक हजार योजन और पांच अनुत्तर विमानों में ग्यारह सौ योजन ऊँचे विमान हैं ।
यहाँ पर शंका यह होती है कि पहले और दूसरे देवलोक के विमानों की ऊँचाई पाँच सौ पांच सौ योजन की बतलाई गई है, तो फिर यहाँ यह कैसे कहा गया है कि पहले देवलोक के विमानों से दूसरे देवलोक के विमान कुछ ऊँचे और उन्नत हैं।
समाधान-इस शंका का समाधान यह है कि-पांच सौ योजन की ऊँचाई का कथन सामान्य की अपेक्षा है और कुछ ऊँचे और कुछ उन्नत का कथन विशेष की अपेक्षा है । इसलिए दूसरे देवलोक के विमान चार छह अंगुल ऊँचे एवं उन्नत हों, तो भी किसी प्रकार का विरोध नहीं। सामान्य रूप से विमानों की ऊँचाई पांच सौ योजन ही बतलाई गई है । अर्थात् पांच सौ योजन की ऊँचाई का कथन सामान्य कथन है और कुछ ऊँचे और कुछ उन्नत का कथन विशेष कथन है। ये दोनों कथन भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से (सामान्य अपेक्षा से और विशेष अपेक्षा से) कहे गये होने के कारण दोनों में किसी प्रकार का विरोध नहीं है।
केरिसी विउठवणा'-विकुर्वणा कितने प्रकार की है ? इस विषय का सारा वर्णव भगवान् ने 'मोका' नाम की नगरी में फरमाया था । इसलिए यह प्रथम उद्देशक 'मोआ उद्देस' 'मोका उद्देशक' इस नाम से कहा जाता है।
'सेवं भंते ! सेवं भंते !! 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है जैसा कि आप फरमाते हैं।
॥ तीसरे शतक का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
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