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भगवती सूत्र-श. ५ उ ६ धनुर्धर की क्रिया
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है वे जीव भी कायिकी आदि पांच क्रियाओं से स्पष्ट होते हैं।
विवेचन-क्रिया का प्रकरण चल रहा है, अतः किया के सम्बन्ध में ही कहा जाता है
एक पुरुष, धनुष पर बाण चढ़ाकर तथा तद्योग्य आसन लगाकर कर्ण पर्यन्त वाण खींचकर छोड़ता है । छुटा हुआ वह बाण, आकाशस्थ प्राण. भूत, जीव, सत्त्वों का हनन करता है, उनको संकुचित करता है, उनको अधिक या कम परिमाण में स्पर्श करता है, संघटित करता है, परितापित और क्लान्त करता है एवं एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा देता है और प्राण रहित भी कर देता है। ऐसी स्थिति में उस पुरुष को धनुष उठाया और छोड़ा वहाँ तक प्राणातिपात आदि पांचों क्रियाएं लगती है । जिन जीवों के शरीर से वह धनुष बना है, उन जीवों को भी पांच क्रियाएँ लगती है । इसी प्रकार धनुपृष्ठ, डोरी, हारू, बाण और शर, पत्र, फल, हारू-ये सब भी पांच क्रियाओं से स्पष्ट होते हैं ।। - शंका-बाण फेंकनेवाले पुरुष को पांच क्रियाएँ कहना ठीक है, क्योंकि उसके शरीर आदि का व्यापार दिखाई देता है । परन्तु धनुष के जीवों के पांच क्रियाएँ कैसे हो सकती हैं ? उनका तो शरीर भी उस समय अचेतन अर्थात् जड़ है । यदि जड़ शरीर के कारण भी क्रिया का होना तथा उममे कर्म बन्ध का होना माना जायेगा, तब तो सिद्ध जीवों को भी कर्म बन्ध का प्रसंग आवेगा। क्योंकि सिद्ध जीवों के मृतक शरीर भी लोक में जीव हिंसा आदि के निमित्त हो सकते हैं । इस सम्बन्ध में एक बात और भी विचारने योग्य है, वह यह है कि-चूंकि धनुष, कायिकी आदि क्रियाओं में हेतुभूत है, इसलिये उसके जीवों को पाप कर्म का बन्ध होता है । तो इस प्रकार जीव रक्षा के साधनभूत साधु के पात्र आदि धर्मोपकरण के जीवों के भी पुण्य कर्म का बन्ध क्यों न माना जाय ?
. समाधान-अविरति के परिणाम से बन्ध होता है । अविरति के परिणाम जिस प्रकार पुरुष के होते हैं, वैसे ही उन जीवों के भी हैं, जिनसे कि धनुष आदि बने हैं । सिद्धों में अविरति परिणाम नहीं है । इसलिये उनके कर्मबन्ध नहीं होता।
साधु के धर्मोपकरण पात्र आदि के जीवों के पुण्य का बन्ध नहीं होता, क्योंकि पुण्य बन्ध में हेतुभूत विवेक आदि का उन में अभाव होता है । इस प्रकार पुण्य कर्म बन्ध के हेतुरूप विवेक आदि शुभ अध्यवसाय, पात्रादि के जीवों के न होने उन्हें पुण्य का बन्ध नहीं होता । किन्तु धनुष के जीवों के अशुभ कर्म के बन्ध के हेतु रूप अविरति परिणाम के होने से उन जीवों को कायिकी आदि पांच क्रियाएँ लगती हैं एवं तन्निमित्तक अशुभ कर्म का बन्ध होता है । दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञ भगवान् के वचन प्रमाण होते हैं । इसलिये
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