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________________ ६७२ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ४ अनगार की वैक्रिय शक्ति को देखते हैं या बाहरी भाग को देखते हैं ? ___४ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से चार भंग कहना चाहिए । इसी तरह क्या मूल को देखते हैं ? क्या कन्द को देखते हैं ? हे गौतम ! पहले की तरह चार भंग कहने चाहिए । क्या मूल को देखते हैं ? क्या स्कन्ध को देखते हैं ? हे गौतम ! यहाँ भी चार भंग कहना चाहिए। इस तरह मूल के साथ बीज तक संयुक्त करके कहना चाहिए । इसी प्रकार कन्द के साथ यावत् बीज तक कहना चाहिए । इसी तरह यावत् पुष्प का बीज तक संयोग करके कहना चाहिए। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वृक्ष के फल को देखते हैं, या बीज को देखते हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से चार भंग कहना चाहिए। विवेचन-तीसरे उद्देशक में क्रिया के सम्बन्ध में कथन किया गया है । वह क्रिया ज्ञानियों के प्रत्यक्ष होती है । इसलिये अब उस क्रिया की विचित्रता का कथन इस चौथे उद्देशक में किया जाता है। यहाँ प्रश्न में अनगार के लिये 'भावितात्मा' विशेषण दिया गया है । इसका अभिप्राय यह है कि प्रायः करके तप संयम से भावितात्मावाले अनगारों को ही अवधिज्ञानादि लब्धियाँ होती हैं । प्रश्न यह किया गया है कि भावितात्मा अनगार, वैक्रिय रूप बनाकर विमात द्वारा जाते हुए देव को अपने ज्ञान द्वारा जानते हैं और दर्शन से देखते हैं ? इसके उत्तर में चौभंगी कही गई है, क्योंकि अवधिज्ञान की विचित्रता है । कोई अवधिज्ञानी, देव को देखता है, किंतु विमान को नहीं । कोई विमान को देखता है, किन्तु देव को नहीं। कोई देव और विमान दोनों को देखता है और कोई देव और विमान दोनों को ही नहीं देखता है । इसी तरह देवी की और देव सहित देवी की, प्रत्येक की चौभंगी कहनी चाहिए। इसी प्रकरण में मूल, कन्द यावत् बीज तक प्रश्न किये गये हैं । मूल आदि दस पद ये हैं:-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल (कोंपल), पत्र, पुष्प, फल, बीज।। इन दस पदों के द्विक संयोगी ४५ भंग होते हैं यथा१ मूल-कन्द (धड़) २ मूल-स्कन्ध (मोटा डाल) ३ मूल-छाल (त्वचा) ४ मूल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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