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भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव
१७ उत्तर-गोयमा ! पाणामाए णं पव्वजाए पव्वइए समाणे जं जत्थ पासइ-इंदं वा, खंदं वा, रुदं वा, सिवं वा, वेसमणं वा, अजं वा, कोट्टकिरियं वा, रायं वा, जाव-सत्थवाहं वा, काकं वा, साणं वा, पाणं वा, उच्चं पासइ उच्चं पणामं करेइ, णीयं पासइ णीयं पणामं करेइ, जं जहा पासइ, तं तहा पणामं करेइ, से तेण. टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पाणामा पव्वजा ।
कठिन शब्दार्थ-सुद्धोयणं-सुद्धोदन केवल चावल ही, पडिग्गाहइ-ग्रहण करे, उदएणं-उदक-पानी से, पक्खालेइ-धोवे, जं जत्थ पासइ-जिसे जहां देखे, खंद-स्कन्द, रुई-रुद्र, अज्ज-आर्या-पार्वती, कोट्टकिरियं-महिषासुर को पीटती हुई चंडिका, साणंश्वान-कुत्ता।
भावार्थ-जिस समय तामली गृहपति ने 'प्राणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार की, उसी समय उसने इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया-यावज्जीवन मैं बेले बेले की तपस्या करूँगा यावत् पूर्व कथितानुसार भिक्षा की विधि द्वारा केवल ओदन (पकाये हुए चावल) लाकर उन्हें इक्कीस बार पानी से धोकर उनका आहार करूंगा। इस प्रकार अभिग्रह धारण करके यावज्जीवन निरन्तर बेले बेले की तपस्यापूर्वक दोनों हाथ ऊंचे रखकर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ वह तामली तापस विचरने लगा। बेले के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उत्तर कर स्वयं लकडी का पात्र लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में ऊंच, नीचे
और मध्यम कुलों में भिक्षा की विधिपूर्वक भिक्षा के लिए फिरता था। भिक्षा में केवल ओदन लाता था और उन्हें इक्कीस बार पानी से धोकर खाता था।
भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! तामली तापस द्वारा ली हुई प्रव्रज्या का नाम 'प्राणामा' किस कारण से कहा जाता है ?
उत्तर-हे गौतम ! जिस व्यक्ति ने 'प्राणामा' प्रवज्या ली हो, वह
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