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________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ४ प्रमादी मनुष्य विकुर्वणा करते हैं २४ उत्तर - हे गौतम ! मायी मनुष्य प्रणीत ( सरस ) पान भोजन करता है । इस प्रकार बार बार प्रणीत पान भोजन करके वमन करता है । उस प्रणीत पान भोजन द्वारा उसकी हड्डियाँ और हड्डियों में रही हुई मज्जा, घन ( गाढ़ ) होती है। उसका रक्त और मांस प्रतनु होता है । उस भोजन के जो यथा - बादर पुद्गल होते हैं, उनका उस उस रूप में परिणमन होता है । यथा -- श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शनेन्द्रिय रूप में परिणमन होता है । तथा हड्डियाँ, हड्डियों की मज्जा, केश, श्मश्रु, रोम, नख, वीर्य और रक्त रूप में परिणमते हैं । अमायी मनुष्य तो रुक्ष ( रूखा सूखा ) पान भोजन करता है और ऐसा भोजन करके वह वमन नहीं करता । उस रूखे सूखे भोजन द्वारा उसकी हड्डियाँ और हड्डियों की मज्जा प्रतनु ( पतली ) होती है और उसका रक्त और माँस घन ( गाढ़ा ) होता है । उस आहार के जो यथाबादर पुद्गल होते हैं, उनका परिणमन उच्चार ( विष्ठा) प्रश्रवण (मूत्र) यावत् रक्त रूप से होता है। इस कारण से वह अमायी मनुष्य, विकुर्वणा नहीं करता । माय मनुष्य अपनी की हुई प्रवृत्ति की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना यदि काल कर जाय तो उसके आराधना नहीं होती, किन्तु अपनी की हुई प्रवृत्ति का पश्चात्ताप करने से अमायी बना हुआ वह मनुष्य यदि आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है । ६८५ सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी तरह है । हे भगवन् ! यह इसी तरह है । ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । : विवेचन – आगे मायी और अमायी के सम्बन्ध में कथन किया गया है । यहाँ मायी का अर्थ 'प्रमत्त मनुष्य' लेना चाहिये, क्योंकि अप्रमत्त मनुष्य वैक्रिय नहीं करता है । प्रमत्तः मनुष्य वर्ण, गन्धादि के लिये तथा शारीरिक बल, वृद्धि आदि के लिये विक्रिया स्वभाव रूप प्रणीत ( गरिष्ठ) भोजन करता है । और उसका वमन विरेचन करता है । इससे वैक्रियकरण भी होता है । वह गरिष्ठ भोजन के पुद्गलों को श्रोत्रेन्द्रिय आदि रूप में परिणमाता है । इसीसे उसके शरीर में रक्त मांस आदि की वृद्धि होती है और शरीर दृढ़ और पुष्ट बनता है । अमायी (अप्रमत्त) मनुष्य विक्रिया करने का इच्छुक नहीं होता । इसलिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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