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भगवती सूत्र-श. ६ उ. ६ मारणान्तिक समुद्घात
पबयस्त आलाव ओ भणिओ, एवं दाहिणेणं, पञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं, उड्ढे अहे । जहा पुढविकाइया तहा एगिदियाणं सव्वेसि एक्केकस्स छ आलावगा भाणियब्वा।
कठिन शब्दार्थ-लोयंतं-लोक के अन्त में, पाउणिज्जा–प्राप्त करता है। ___भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव, मारणान्तिक समुद्घात से समवहत हुआ है और समवहत होकर पृथ्वीकाय के असंख्यात लाख आवासों में से किसी एक आवास में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होने के योग्य है, वह जीव मेरुपर्वत से पूर्व में कितनी दूर जाता है और कितनी दूरी को प्राप्त करता है ?
५ उत्तर-हे गौतम ! वह लोकान्त तक जाता है. और लोकान्त को प्राप्त करता है।
६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या उपर्युक्त पृथ्वीकायिक जीव, वहां जाकर ही आहार करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है ? .
६ उत्तर--हे गौतम ! कोई जीव, वहां जाकर ही आहार करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है और कोई जीव वहां जाकर वापिस लौटता है, वापिस लौट कर यहां आता है, यहां आकर फिर दूसरी बार मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है, समवहत होकर मेरुपर्वत के पूर्व में अंगुल के असंख्येय भाग मात्र, संख्येय भाग मात्र, बालाग्र, बालान-पृथक्त्व (दो से नव तक बालाग्र) इसी तरह लिक्षा (लोख) यूका (जू) यव (जो धान्य) अंगुल यावत् करोड़ योजन, कोटाकोटि योजन, संख्येय हजार योजन और असंख्येय हजार योजन में अथवा एक प्रदेश श्रेणी को छोड़कर लोकान्त में पृथ्वीकाय के असंख्य लाख आवासों में से किसी आवास में पृथ्वीकायिक रूप से उत्पन्न होता है और पीछे आहार करता है, परिणमाता है और शरीर बांधता है। जिस प्रकार मेरा पर्वत की पूर्व दिशा के विषय में कपन किया गया, उसी प्रकार से दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा के विषय में कहना चाहिये। जिस प्रकार पृथ्वी.
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