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________________ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! सिद्ध भगवान् कितने काल तक सोपचय रहते हैं ? १९ उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आठ समय तक सिद्ध भगवान् सोपचय रहते हैं। २० प्रश्न-हे भगवन् ! सिद्ध भगवान् कितने काल तक निरुपचय निरपचय रहते हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक सिद्ध भगवान् निरुपचय निरपचय रहते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । विवेचन-पहले पुद्गलों का कथन किया गया है । पुद्गल जीवों के उपग्राहक (उपकारक) होते हैं, इसलिये अब जीवों के विषय में कथन किया जाता है । नैरयिक जीवों में जो चौबीस मुहूर्त का अवस्थान काल कहा गया है । वह इस प्रकार समझना चाहिये, सातों ही पृथ्वियों (नरकों) में बारह मुहूर्त तक वहां न तो कोई जीव उत्पन्न होता है और न कोई जीव मरता (उद्वर्तता) है । इस प्रकार का उत्कृष्ट विरह काल होने से इतने समय तक नरयिक जीव अवस्थित रहते हैं । तथा दूसरे बारह मुहूर्त तक जितने जीव नरकों में उत्पन्न होते हैं, उतने ही जीव वहाँ से मरते हैं । यह भी नैरयिकों का अवस्थान काल हैं। इसलिये चौबीस मुहूर्त तक नै रयिक जीवों की एक परिमाणता होने से उनका अवस्थान (हानि और वृद्धि रहित) काल चौबीस मुहूर्त का कहा गया है । इस प्रकार रत्नप्रभा आदि पृध्वियों में जहाँ-व्युत्क्रान्ति पद में उत्पाद, उद्वर्तना और विरहकाल चौबीस मुहूर्त का कहा गया है, वहाँ रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में नैरयिकों में उतना ही काल अर्थात् चौबीस मुहूर्त जितना समय उत्पाद और उद्वर्तना काल, पूर्वोक्त चौबीस मुहूर्त की संख्या के साथ मिलाने से दुगुना हो जाता है । अर्थात् अड़तालीस मुहूर्त का अवस्थित काल हो जाता है । यह बात सूत्र में ही बतला दी गई है । विरहकाल सभी जगह अवस्थान काल से आधा होता है। यह सर्वत्र समझना चाहिये ।। एकेन्द्रिय जीव बढ़ते भी हैं, घटते भी हैं और अवस्थित भी रहते हैं। यद्यपि उनमें विरह नहीं है, तथापि जब वे बहुत उत्पन्न होते हैं और थोड़े मरते हैं, तब वे बढ़ते हैं' ऐसा व्यपदेश किया जाता है । जब वे बहुत मरते हैं और थोड़े उत्पन्न होते है तब 'वे घटते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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