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भगवती सूत्र - श. ५ उ. ८ जीवों की हानि और वृद्धि
है' ऐसा कहा जाता है। जब उत्पत्ति और मरण समान संख्या में होता है अर्थात् जितने जीव उत्पन्न होते हैं उतने ही मरते हैं, तब 'वे अवस्थित हैं' ऐसा कहा जाता है । एकेंद्रिय जीवों की वृद्धि में, हानि में और अवस्थिति में आवलिका का असंख्येय भाग काल होता है, क्योंकि उसके बाद यथायोग्य वृद्धि आदि नहीं होती ।
बेइन्द्रिय और इन्द्रिय जीवों का अवस्थान काल उत्कृष्ट दो अन्तर्मुहूर्त है । एक अन्तर्मुहूर्त तो उनका विरह काल है और दूसरे अन्तर्मुहूर्त में वे समान संख्या में उत्पन्न होते और मरते हैं । इस प्रकार दो अन्तर्मुहूर्त होते हैं ।
आणत और प्राणत देवलोकों में संख्यात मास तथा आरण और अच्युत देवलोकों में संख्यात वर्ष का अवस्थान काल है । इसका अभिप्राय यह है कि संख्यातः मास और संख्यात वर्ष रूप विरह काल को दुगुना करने पर भी उसमें संख्यातपना ही रहता है । इसलिये संख्यातमास और संख्यात वर्ष का उत्कृष्ट अवस्थान काल कहा गया है ।
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नवग्रैवेयकों में से नीचे की त्रिक में संख्यात सैकड़ों वर्ष, मध्यम त्रिक में संख्यात हजारों वर्ष और ऊपर की त्रिक में संख्यात लाखों वर्ष का विरह काल है । उसको दुगुना करने पर भी उसमें संख्यात वर्षपन का विरोध नहीं आता । इसी प्रकार विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित में असंख्यात काल का विरह है । उसको दुगुना करने पर भी उसमें असंख्यातपना ही रहता है । सर्वार्थसिद्ध में पत्योपम का संख्येय भाग विरह काल है । उसको दुगुना करने पर भी संख्येय भागपना ही रहता है । इसलिये कहा गया है कि विजय, वैजयन्त, जयन्त और अंपराजित का उत्कृष्ट अवस्थान काल असंख्य हजारों वर्षों का है और सर्वार्थसिद्ध का उत्कृष्ट अवस्थान काल पल्योपम का संख्येय भाग है । अब दूसरे प्रकार से जीवों का कथन किया जाता है । सोपचय का अर्थ है 'वृद्धि सहित ।' अर्थात् पहले के जितने जीव हैं, उनमें नये जीवों की उत्पत्ति होने से संख्या की वृद्धि होती है । इसलिये उसे 'सोपचय' कहते हैं । पहले के जीवों में से कितनेक जीवों के मरजाने से संख्या घट जाती है, उसे 'सापचय' (हानि सहित ) कहते हैं । उत्पाद और उद्वर्तन ( मरण) द्वारा एक साथ वृद्धि और हानि होने से उसे 'सोपचयसापचय' ( वृद्धि हानि सहित ) कहते हैं। उत्पाद और उद्वर्तन ( मरण) के अभाव से वृद्धि और हानि न होना-'निरुपचयनिरपचय' कहलाता है ।
शंका- मूल में शास्त्रकार ने पहले वृद्धि, हानि और अवस्थिति के सूत्र कहे हैं । उसके बाद उपचय, अपचय, उपचयापचय और निरुपचयनिरपचय के सूत्र कहे हैं । इस
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