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________________ ७८८ भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३ अन्य-तीथियों की आयुबन्ध विषयक मान्यता जाव चिट्ठति । एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पडिसंवेदेइ । तं जहा-इहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा; जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ णो तं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, जं समयं परभवियाउयं पडिसंवेदेइ णो तं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ; इहभवियाउयस्स पडिसंवेयणाए णो परभवियाउयं पडिसंवेदेइ, परभवियाउयस्स पडिसंवेयणाए णो इहभवियाउयं पडिसंवेदेइ । एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं आउयं पडिसंवेदेइ । तं जहाइहभवियाउयं वा, परभवियाउयं वा । कठिन शब्दार्थ-अण्णउत्थिया-अन्यतीथिक, एवमाइक्खंति इस प्रकार कहते हैं,पण्णवंति-बताते हैं, परूवेंति-प्ररूपणा करते हैं आणुपुश्विगढिया-क्रमशः गांठें लगाई हो, जालगंठिया-जालग्रन्थि, अणंतरगढिया-एक के बाद दूसरी अन्तर रहित गांठ लगाई हो, परम्परगढिया-पंक्तिबद्ध ग्रंथी हुई हो, अण्णमण्णगढिया-परस्पर ग्रंथित हो, आजाइसयसहस्सेसुलाखों जन्म, पडिसंवेदेइ -अनुभवता है, पडिसंवेयणाए -भोगता हुआ-वेदता हुआ। ___ भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! अन्य-तीथिक इस प्रकार कहते हैं, भाषण करते हैं, बतलाते हैं, प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई एक जाल हो, उस जाल में क्रमपूर्वक गांठे दी हुई हों, बिना अन्तर एक के बाद एक गांठे दी हुई हों, परम्परा गूंथी हुई हों, परस्पर गूंथी हुई हों, ऐसी वह जालग्रंथि विस्तारपने, परस्पर भारपने, परस्पर विस्तार और भारपने, परस्पर समुदायपने रहती है अर्थात् जैसे जाल एक है, परन्तु उसमें अनेक गांठे परस्पर संलग्न रहती हैं, वैसे ही क्रमपूर्वक लाखों जन्मों से सम्बन्धित बहुत से आग्रुष्य बहुत से जीवों के साथ परस्पर क्रमशः गुम्फित हैं । यावत् संलग्न रहे हुए हैं। इस कारण उन जीवों में का एक जीव भी एक समय में दो आयुष्य को वेदता है अर्थात् दो आयुष्य । का अनुभव करता है । यथा-एक ही जीव, इस भव का आयुष्य वेदता है और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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