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________________ भगवती सूत्र - श ५ उ. ४ केवली के अस्थिर योग णो णं पभू केवली सेयकालंसि वि तेसु चेव आगासपए सेसु हत्थं वा, जाव - चिट्ठित्तए । कठिन शब्दार्थ -- अस्ति समयंसि - इस समय में, ऊहं-जंघा, ओगाहित्ताणं - अवगाहकर, सेयकालंसि - भविष्यत्काल में, चिट्टित्तए — रहना, चलोवकरणट्टयाए - उपकरण ( हाथ आदि अंग ) चलित ( अस्थिर ) होने के कारण । ८२९ भावार्थ - ३६ प्रश्न - हे भगवन् ! केवली भगवान् इस समय में जिन आकाश प्रदेशों पर अपने हाथ, पैर, बाहु और उरू (जंघा ) को अवगाहित करके रहते हैं, क्या भविष्यत्काल में भी उन्हीं आकाश प्रदेशों पर अपने हाथ आदि को अवगाहित करके रह सकते हैं ? ३६ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ३७ प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? ३७ उत्तर - हे गौतम ! केवली भगवान् के वीर्यप्रधान योग वाला जीव द्रव्य होता है । इससे उनके हाथ आदि अंग चलायमान होते हैं। हाथ आदि अंगों के चलित होते रहने से वर्तमान समय में जिन आकाश प्रदेशों को अवगाहित कर रखा है, उन्हीं आकाश प्रदेशों पर भविष्यत्काल में केवली भगवान् हाथ आदि को अवगाहित नहीं कर सकते । इसलिये यह कहा गया है कि केवली भगवान् जिस समय में जिन आकाश प्रदेशों पर हाथ पाँव आदि को अवगाहित कर रहते हैं, उस समय के अनन्तर आगामी समय में उन्हीं आकाश प्रदेशों को अवगाहित नहीं कर सकते । विवेचन --- वर्तमान समय में जिन आकाश प्रदेशों पर केवली भगवान् के हाथ, पैर आदि अंग हैं । उन्ही आकाश प्रदेशों पर भविष्यत्काल में नहीं रख सकते । इसका कारण 'वीर्य सयोगसद्द्रव्य' है । वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाली शक्ति को 'वीर्य' कहते हैं। वह वीर्यं जिन मानस आदि व्यापारों में प्रधान हो ऐसे जीव द्रव्य को 'वीर्यसयोगसद्द्रव्य' कहते हैं । वीर्य का सद्भाव होने पर भी योगों के व्यापार के बिना चलन नहीं हो सकता । इसलिये 'सयोग' शब्द द्वारा सद्द्रव्य को विशेषित किया गया है और द्रव्य के । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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