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________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव ५७३ भी आर्य और धार्मिक वचन सुना था एवं हृदय में धारण किया था, जिससे कि देवेन्द्र देवराज ईशान को यह दिव्य देवऋद्धि यावत् मिली है, प्राप्त हुई है और सम्मुख आई है ? " १७ उत्तर-हे गौतम ! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में ताम्रलिप्ती नाम को नारो थी । उस नगरी का वर्णन करना चाहिए। उस ताम्रलिप्ती नपरी में तामली नाम का मौर्यपुत्र (मौर्यवंश में उत्पन्न) गृहपति रहता था। वह तामली गृहपति धनाढ्य और दीप्ति वाला था यावत् वह बहुत से मनुष्यों द्वारा अपराभवनीय (नहीं दबने वाला) था। किसी एक समय में उस मौर्यपुत्र तामली गृहपति को रात्रि के पिछले भाग में कुटुम्बजागरण करते हुए ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि मेरे द्वारा पूर्वकृत सुआचरित, सुपराक्रमयुक्त, शुभ और कल्याणरूप कर्मों का कल्याणफल रूप प्रभाव अभी तक विद्यमान है, जिसके कारण मेरे घर में हिरण्य (चाँदी) बढ़ता है, सुवर्ण बढ़ता है, रोकड़ रुपया रूप धन बढ़ता है, धान्य बढ़ता है एवं में पुत्रों द्वारा, पशुओं द्वारा और पुष्कल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, चन्द्रकान्त आदि मणि, प्रवाल आदि द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो रहा हूं। ___तं किं णं अहं पुरा पोराणाणं, सुचिण्णाणं, जाव- कडाणं कम्माणं एगंतसो खयं उवेहमाणे विहरामि, तं जाव-ताव अहं हिरण्णेणं वड्ढामि, जाव-अईव अईव अभिवड्ढामि, जावं च णं मे मित्त-णाइ-णियगसंबंधि-परियणो आढाइ, परियाणाइ, सक्कारेइ, सम्माणेइ, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं विणएणं पज्जुवासइ, तावता मे सेयं कलं पाउप्पभायाए रयणीए जाव-जलंते, सयमेव दारुमयं पडिग्गहं करेत्ता, विउलं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं, उवक्खडावेत्ता, मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परियणं आमं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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