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________________ भगवती मूत्र-ग. ५ उ. २ स्निग्ध पथ्यादि वायु यह इसी प्रकार है ! ! ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन -पहले के प्रकरण में पृथ्वीकाय, वनस्पनिकाय आदि के शरीर सम्बन्धी वर्णन किया गया है । अब अप्काय रूप लवण समुद्र का स्वरूप बतलाया जाता है । यहां लवण समुद्र के विषय में प्रश्न करने पर 'जीवाभिगम' सूत्र का अतिदेश किया गया है । इस विषयक वर्णन जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति में है । वह इस प्रकार है। हे भगवन् ! लवण समुद्र का संस्थान कैसा है ? हे गौतम ! गोतीर्थ, नौका, शीपसम्पुट, अश्वस्कन्ध और वलभी के समान गोल है। हे भगवन् ! लवणसमुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ, परिक्षेप, उद्वेध, उत्सेध और सर्वाग्र कितना है ? हे गौतम ! लवणसमुद्र का चक्रवाल विष्कम्भ दो लाख योजन का है । उसका परिक्षेप पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ ऊनचालीम (१५८११३९) योजन से कुछ अधिक है । उसका उद्वेध (गहराई-ऊंडाई)एक हजार योजन है । उसका उत्सेध (ऊंचाईशिखर) सोलह हजार योजन है । उसका सर्वाग्र सतरह हजार योजन है। हे भगवन् ! इतना विस्तृत और विशाल यह लवणसमुद्र, जम्बूद्वीप को क्यों नहीं डूबा देता, यावत् जलमय क्यों नही कर देता है ? हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप के भरत और एरावत आदि क्षेत्रों में अरिहन्त, चक्रवर्ती, वलदेव, वासुदेव, चारण, विद्याधर, श्रमण, श्रमणी, थावक, थाविका और धर्मात्मा मनुष्य हैं, जो स्वभाव से भद्र और विनीत हैं, उपशान्त हैं, स्वभाव से ही जिनके क्रोधादि कषाय मन्द हैं । जो सरल, कोमल, जितेन्द्रिय, भद्र और नम्र होते हैं। उनके प्रभाव से लवण समुद्र, जम्बूद्वीप को डूबाता नहीं है यावत् जलमय नहीं करता है । इत्यादि वर्णन यावत् 'लोक स्वभाव है,' तक कहना चाहिये । इसलिए लवणसमुद्र जम्बूद्वीप को डूबाता नहीं है, यावत् जलमय नहीं करता है । ॥ इति पांचवें शतक का दूसरा उद्देशक समाप्त ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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