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भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत का समय
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और तीसरे समय में निर्जीर्ण हो जाती है । अर्थात् बद्ध-स्पृष्ट, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण हुई वह क्रिया, भविष्यकाल में अकर्म रूप हो जाती है। इसलिए हे मण्डितपुत्र ! जब तक वह जीव, सदा समित नहीं कंपता है, यावत् उन उन भावों को नहीं परिणमता है, तब मरण के समय में उसकी अन्तक्रिया (मुक्ति) हो जाती है। इस कारण से ऐसा कहा गया है।
विवेचन- 'अत्तत्तासंवुडस्स' इस पद से यह सूचित किया गया है कि आश्रववाला संयत भी कर्म का बन्ध करता है, तब असंयत जीव कर्म का बन्ध करे, इनमें कहना ही क्या ? अर्थात् असंयत जीव तो निरन्तर कर्मों का बन्ध करता ही है । इससे यह बतलाया गया है कि कर्म रूप पानी से भरी जाती हुई जीव रूप नौका, नीचे डूबती ही है । जो नौका छिद्र रहित होती है. वह पानी में डूबती नहीं, किन्तु पानी पर तैरती है। इसी प्रकार आश्रव रहित निष्क्रिय जीव, संसार समुद्र से तिर जाता है।
प्रमत्त सयत और अप्रमत्त संयत का समय १६ प्रश्न-पमत्तसंजयस्स णं भंते ! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ ?
_१६ उत्तर-मंडियपुत्ता ! एगजीवं पडुच्च जहण्णेणं एक्कं समयं, उकोसेणं देसूणा पुव्वफोडी । णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा ।
१७ प्रश्न-अप्पमत्तसंजयस्स णं भंते ! अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ ?
१७ उत्तर-मण्डियपुत्ता ! एगजीवं पडुच्च जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी । णाणाजीवे पडुच्च सव्वधं ।
–सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति मंडियपुत्ते अण
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