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भगवती सूत्र श. ५ उ. ९ पाश्र्वापत्य स्थविर और श्रीमहावीर
कहलाता है, तो इस कारण हे आर्यों ! इस प्रकार कहा जाता है, यावत् असंख्य लोक में इत्यादि पूर्ववत् कहना चाहिये ।
तब से पार्थापत्य स्थविर भगवंत श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी जानने लगे ।.
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तणं ते थे भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतिए चाउनामाओ धम्माओ पंच महव्वयाई, सपडिक्कमणं धम्मं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए; अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध; तएणं ते पासावचिज्जा थेरा भगवंतो जाव - चरमेहिं उस्सासणिस्सा से हिं सिद्धा, जाव - सन्वदुक्खष्पहीणा; अत्थेगइया देवलोएसु उववण्णा ।
भावार्थ - इसके पश्चात् उन स्थविर भगवंतों ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर वे इस प्रकार बोलेहे भगवन् ! हम आपके पास चतुर्याम धर्म से सप्रतिक्रमण, पंच महाव्रत रूप धर्म को स्वीकार कर विचरना चाहते हैं । भगवान् ने फरमाया- हे देवानुप्रियों ! जिस प्रकार आपको सुख हो वैसा करो, किन्तु प्रतिबन्ध मत करो ।
इसके बाद वे पार्श्वपत्य स्थविर भगवन्त, यावत् सर्व दुःखों से प्रहीण (मुक्त) हुए और कितने ही देवलोकों में उत्पन्न हुए ।
विवेचन - यहां काल निरूपण का अधिकार होने से रात्रि दिवस रूप काल के विषय असंख्यात लोक में अर्थात् चौदह
में कथन किया जाता है । असंख्यात प्रदेश रूप होने से रज्वात्मक आधारभूत क्षेत्र-लोक में अनन्त परिमाण वाले रात्रि दिवस उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और उत्पन्न होंगे । स्थविर भगवंतों का यह प्रश्न पूछने का आशय यह है कि जो लोक, असंख्यात है, उसमें अनन्त रात्रि दिवस किस प्रकार हो सकते हैं ? अथवा किस तरह रह सकते हैं ? क्योंकि लोक रूप आधार असंख्यात होने से अल्प है और रात्रि दिवस रूप
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