________________
भगवती सूत्र - ५ उ. ९ पावपित्य स्थविर और श्री महावीर
कठिन शब्दार्थ- पासावच्चिज्जा - पारवपित्य अर्थात् पार्श्वनाथ भगवान् के शिष्य प्रशिष्य थेरा - स्थविर, अदूरसामंते न तो निकट न दूर, विगच्छसु नष्ट होते हैं, परित्तापरिमित, बुइए कहा, णिलीयंति नष्ट होते हैं, विगए-विगत, लोक्कइ देखा जाता हैजाना जाता है, सब्वण्णू सर्वज्ञ, सव्वदरिसी - सर्वदर्शी, पच्चभिजाणंति जानते हैं ।
भावार्थ - १५ प्रश्न - उस काल उस समय में पाश्र्वापत्य अर्थात् पार्श्वनाथ भगवान् के सन्तानिये स्थविर भगवन्त, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे, वहाँ आये। आकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से अदूर सामन्त अर्थात् न बहुत दूर और न बहुत नजदीक, किन्तु यथायोग्य स्थान पर खडे रह कर वे इस प्रकार बोले- हे भगवन् ! क्या असंख्य लोक में अनन्त रात्रि दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे ? नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? अथवा परिमित रात्रि दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे ? अथवा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ?
९२३
१५ उत्तर - हां, आर्यों ! असंख्य लोक में अनन्त रात्रि दिवस उत्पन्न होते हैं, यावत् उपर्युक्त रूप से कहना चाहिये ।
१६ प्रश्न - हे भगवन् !
इसका क्या कारण है ।
१६ उत्तर - हे आर्यों ! आपके गुरु स्वरूप तेवीसवें तीर्थंकर पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत कहा है। इसी प्रकार अनादि, अनवदग्र (अनन्त) परिमित, अलोक द्वारा परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, बीच में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, नीचे पल्यङ्काकार, बीच में उत्तम वज्राकार, ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार, लोक कहा है । उस प्रकार के शाश्वत, अनादि, अनन्त, परित, परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, नौचे पल्यङ्काकार स्थित, बीच में उत्तम वज्राकार, और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थित लोक में अनन्त जीवधन उत्पन्न हो होकर नष्ट होते है, और परित (नियत) असंख्य जीवघन भी उत्पन्न हो होकर नष्ट होते हैं । यह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत है, परिणत है । क्योंकि वह अजीवों द्वारा लोकित ( निश्चित) होता है, विशेष रूप से लोकित होता है । जो लोकित (ज्ञात) हो, क्या वह लोक कहलाता है ? हाँ, भगवन् ! वह लोक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org