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________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. ३ प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत का समय ६६७ समाधान- 'कालओ' यह शब्द 'क्षेत्र' का व्यवच्छेद करने के लिये दिया गया है, क्योंकि क्षेत्र विषयक प्रश्नों में भी 'कियच्चिरं' शब्द का प्रयोग किया गया है । जैसे कि - 'ओहिणाणं 'खेत्तओ कियच्चिरं' अर्थात् अवधिज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा कहाँ तक होता है ? अवधिज्ञान क्षेत्र अपेक्षा असंख्यात द्वीप समुद्र पर्यन्त होता है । काल की अपेक्षा अवधिज्ञान, साधिक ( कुछ अधिक) छासठ सांगरोपम होता है। इसलिए सूत्र में जो 'कालओ' शब्द दिया है, वह ठीक है और आवश्यक है । प्रमत्त संयम का काल एक जीव की अपेक्षा एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वाद्धा ( सर्व काल ) है । प्रमत्तसंयम का जघन्य काल एक समय, इस प्रकार घटित होता है कि-प्रमत्त संयम को प्राप्त करने के पश्चात् तुरन्त ही एक समय बीतने पर उसका मरण हो जाय। इस अपेक्षा जघन्य काल एक समय है । प्रमत्तगुणस्थानक और अप्रमत्त गुणस्थानक, इन दोनों गुणस्थानों का प्रत्येक का समय अन्तर्मुहूर्त है । अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल वाले ये दोनों गुणस्थानक क्रम क्रम से बदलते रहते हैं, इन दोनों का सम्मिलित उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है, क्योंकि संयमी मनुष्य की उत्कृष्ट आयु पूर्वकोटि होती है । इस प्रकार पूर्वकोटि आयुष्य वाला मनुष्य आठ वर्ष बीतने पर संयम अंगीकार करता है । अप्रमत्त अन्तर्मुहूर्तों की अपेक्षा प्रमत्त के अन्तर्मुहूर्त बड़े होते हैं। इस प्रकार प्रमत्त के सब अन्तर्मुहूर्तों को मिलाने 1. से देशोनपूर्व कोटि काल होता है । इस विषय में अन्य आचार्यों का तो ऐसा कहना है कि प्रमत्त संयत का उत्कृष्ट काल साधिक आठ वर्ष कम पूर्व-कोटि होता है । जिस प्रकार प्रमत्त संयत का कथन किया गया है, उसी प्रकार अप्रमत्त संयत के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि अप्रमत्त संयत का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । क्योंकि अप्रमत्त गुणस्थानक में रहा हुआ जीव, अन्तर्मुहूर्त के बीच में मरता नहीं है । इस विषय में चूर्णिकार का मत तो इस प्रकार है कि-प्रमत्त संयत को छोड़कर बाकी सब सर्वविरत मनुष्य, अप्रमत्त होते हैं, क्योंकि उनमें प्रमाद का अभाव है । ऐसा कोई उपशम श्रेणी करता हुआ जीव एक मुहूर्त के बीच में ही काल कर जाय, तो उसके लिये जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त लब्ध होता है । और देशोन पूर्व-कोटि काल तो केवलज्ञानी की अपेक्षा से घटित होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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