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________________ ९५६ भगवती सूत्र - श.: ६ उ ३ वस्त्र और जीव की सादि सन्तिता 'सिद्धों की आदि नहीं है' - यह बात समूह की अपेक्षा से है, किंतु प्रत्येक सिद्ध की आदि होती है। सभी का अपना अपना उत्पत्तिकाल है । सिद्ध का प्रत्येक जीव पहिले संसारी था । भव का अन्त करने के बाद ही वह सिद्ध हुआ है । कहा भी है; "साई अपज्जवसिया सिद्धा, न य नाम तिकालम्मि । सिकाइ विष्णा, सिद्धि सिद्धेहि सिद्धते || १॥ सव्वं साइ सरीरं, न य नामऽऽदिमयं देह सम्भावो । कालाऽणाइत्तणओ, जहां व राइंदियाईणं ||२|| सब्वी साई सिद्धो न यादिमो विज्जइ तहा तं च । सिद्धी सिद्धा य सया, निद्दिट्ठा रोह पुच्छाए ॥३॥ अर्थात् सिद्धांत में कहा है कि- सिद्ध, सादि अनन्त हैं । भूतकाल में ऐसा कोई भी समय नहीं रहा कि जब सिद्ध स्थान में एक भी सिद्ध नहीं रहा हो ॥ १ ॥ ('जब सिद्ध स्थान कभी सिद्धों से शून्य रहा ही नहीं, तब सिद्धों की आदि कैसे हो सकती है ?' इसके समाधान में दूसरी गाथा में कहा है कि ) L काल अनादि है, शरीर भी अनादि है और दिन-रात भी अनादिकाल से होते आये हैं। ऐसा कोई भी काल नहीं कि जिसमें न तो कोई शरीर रहा हो और न दिन रात हुए हो, तथापि प्रत्येक शरीर सादि है (एक के विनाश के बाद दूसरे की उत्पत्ति होती है) और प्रत्येक रात और दिन भी सादि है। इसी प्रकार सभी सिद्ध सादि हैं । वे अमुक समय में ही सिद्ध हुए हैं, उसके पूर्व वे संसारी ही थे। कोई भी सिद्ध ऐसा नहीं है कि जिस के सिद्ध होने की आदि ही नहीं हो और कोई भी सिद्ध ऐसा नहीं है कि जो सर्व प्रथम सिद्ध हुआ हो और उसके पूर्व वहां कोई सिद्ध नहीं रहा हो । उत्पत्ति की अपेक्षा प्रत्येक सिद्ध, 'सादि अपर्यवसित' है । 'पढ़म समय सिद्ध' 'अनन्तरसिद्ध' और 'तीर्थसिद्ध' आदि भेद भी सिद्ध होने कीं आदि बतलाते हैं । अनादि और सादि में मात्र अपेक्षा भेद है । समूहापेक्षा सिद्ध 'अनादि अपर्यवसित' हैं और व्यक्ति की अपेक्षा 'सादि अपर्यवसित' हैं । अतएव शंका नहीं रहनी चाहिए । Jain Education International भवसिद्धिक जीवों के 'भव्यत्व लब्धि' होती है । यह लब्धि सिद्धत्व प्राप्ति तक रहती है। इसके बाद हट जाती है। इसलिए भवसिद्धिक जीव, 'अनादि सान्त' कहे हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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