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________________ भगवती सूत्र - श. ५ उ. १ धातकीखंड और पुष्करार्द्ध में सूर्योदय ७७३ उदय होकर अग्निकोण में अस्त होते हैं ? इत्यादि प्रश्न ? २१ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार धातकीखंड द्वीप की वक्तव्यता कही गई, उसी तरह आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध के विषय में भी कहनी चाहिए, किंतु इतनी विशेषता है कि 'धातकीखंड द्वीप' के स्थान पर 'आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध' का नाम कहना चाहिए, यावत् आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध में मेरु पर्वत से पूर्व पश्चिम में अवसर्पिणी नहीं होती, उत्सर्पिणी नहीं होती, किन्तु अवस्थित काल होता है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं । विवेचन -- लवण समुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड द्वीप है । जो चार लाख योजन का वलयाकार है । इसमें वारह सूर्य और बारह चन्द्रमा हैं । धातकीखण्ड के चारों तरफ कालोद समुद्र है । वह आठ लाख योजन का वलयाकार है। इसमें बयालीस सूर्य और बयालीस चन्द्रमा हैं । कालोद समुद्र के चारों तरफ पुष्करवरद्वीप है । वह सोलह लाख योजन का वलयाकार है । उसके बीच में मानुषोत्तर पर्वत आ गया है । यह पर्वत अढ़ाई द्वीप दो समुद्र के चारों ओर, गढ़ ( किले) की तरह गोल है । यह पर्वत बीच में आजाने से पुष्करवर द्वीप के दो विभाग हो गये हैं- आभ्यन्तर पुष्करवर द्वीप और वाह्य पुष्करवर द्वीप | आभ्यंतर पुष्करवर द्वीप में ७२ सूर्य और ७२ चन्द्र हैं। वह पर्वत मनुष्य क्षेत्र की मर्यादा करता है, इसलिए इसे मानुषोत्तर पर्वत कहते हैं। इसके आगे भी असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, किन्तु उनमें किसी में भी मनुष्य नहीं हैं। मनुष्य क्षेत्र में ढाई द्वीप और दो समुद्र हैं अर्थात् जम्बूद्वीप धातकीखण्ड द्वीप और अर्द्ध पुष्करवर द्वीप । लवणसमुद्र और कालोद समुद्र । ढाई द्वीप और दो समुद्र की लम्बाई चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन की है । अर्द्ध पुष्करवर द्वीप की दूसरी ओर तिर्यञ्च पशु पक्षी आदि हैं। पुष्करवर द्वीप से आगे असंख्यात द्वीप समुद्र हैं, वे एक एक से दुगुने दुगुने होते गये हैं। सब के अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र हैं । यह सब से बड़ा है । स्वयम्भूरमण समुद्र ने अर्द्ध राजु से कुछ अधिक जगह रोक ली है। इस समुद्र के चौतरफ बारह योजन धनोदधि, घनवात और तनुवात है । यहाँ तिच्छलोक का अन्त होता है । इसके आगे अलोक है । अलोक में आकाशास्तिकाय के सिवाय कुछ नहीं है । अढ़ाई द्वीप में कुल १३२ सूर्य और १३२ चन्द्र हैं । वे सब चर ( गति करने वाले ) हैं । इससे आगे अचर ( स्थिर ) हैं । इसलिए अढ़ाई द्वीप में ही दिवस रात्रि आदि समय का व्यवहार होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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