SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५७० भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का भगवद् वंदन कार्य करके. वापिस इन्द्र को सूचित कर दिया । इसके बाद इन्द्र ने अपने सेनाधिपति को बुलाकर इस प्रकार कहा कि-"हे देवानुप्रिय!" तुम ईशानावतंसक नाम के विमान में घण्टा बजाओ और सब देव और देवियों को इस प्रकार कहो कि-हे देव और देवियों ! ईशानेन्द्र, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करने के लिए जाता है, इसलिए तुम शीघ्र ही अपनी महान् ऋद्धि से संयुक्त होकर इन्द्र के पास जाओ। ___ जब सेनाधिपति ने इस प्रकार जाहिर किया, तो बहुत से देव और देवियाँ ईशानेन्द्र के पास उपस्थित हुए । उन समस्त देव और देवियों से परिवृत्त होकर एक लाख योजन परिमाण वाले विमान में बैठ कर ईशानेन्द्र, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना करने के लिए निकला । नन्दीश्वर द्वीप में पहुँच कर ईशानेन्द्र ने अपने विमान को छोटा बनाया। फिर वह राजगृह नगर में आया । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन बार प्रदक्षिणा की। फिर अपने विमान को जमीन से चार अगुल ऊँचा रख कर, भगवान के पास जाकर उन्हें वन्दना नमस्कार कर पर्युपासना करने लगा। फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्म श्रवण करके इन्द्र ने इस प्रकार निवेदन किया कि-हे भगवन् ! आप तो सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं । सब जानते हैं और सब देखते हैं । मैं तो सिर्फ गौतमादि महर्षियों को दिव्य नाटक विधि दिखलाना चाहता हूँ। ऐसा कह कर ईशानेन्द्र ने दिव्य मण्डप की विकुर्वणा की। उस मण्डप में मणिपीठिका और सिंहासन की भी विकुर्वणा की । फिर भगवान् को प्रणाम करके इन्द्र सिंहासन पर बैठा। इसके बाद उसके दाहिने हाथ से एक सौ आठ देवकुमार निकले और बाएं हाथ से एक सौ आठ देवकुमारियाँ निकलीं । फिर अनेक वादिन्त्रों और गीतों के साथ जन-मानस को रजित करने वाला बत्तीस प्रकार का नाटक बतलाया । फिर उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव को वापिस समेट लिया और एक क्षण में ही वह पहले था वैसा अकेला हो गया। इसका विस्तृत वर्णन रायपसेणीय सूत्र से जानना चाहिए । फिर अपने परिवार सहित देवेन्द्र देवराज ईशान ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना नमस्कार किया और जिस दिशा से आया था, उस दिशा में वापिस चला गया अर्थात् अपने स्थान पर चला गया । तब गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछा कि-हे भगवन् ! ईशानेन्द्र की वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति एवं दिव्य देवप्रभाव कहाँ गया ? कहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy