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भगवती सूत्र-श. ६ उ. ८ असख्य द्वीप समुद्र
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२० उत्तर-गोयमा ! जावइया लोए सुभा णामा, सुभा रूवा, सुभा गंधा, सुभा रसा, सुभा फासा एवइया णं दीवसमुद्दा णामधेजेहिं पण्णता, एवं णेयव्वा सुभा णामा, उद्धारो, परिणामो सव्वजीवाणं ।
8 सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति*
॥ छट्ठसए अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ--उसिओदए--उच्छितोदक-उछलते हुए पानी वाला, पत्थडोदएप्रस्तृतोदक-सम जल वाला, खुभियजले--क्षुब्ध जल वाला, अखुब्भियजले-अक्षुब्ध जल वाला, आढत्तं--प्रारम्भ करके, पुण्णा-पूर्ण, वोलट्टमाणा-वोलट्टमान, बोसट्टमाणाछलकते हुए, पज्जवसाणा-पर्यवसान-अंत।
भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या लवण समुद्र उच्छ्रितोदक (उछलते हुए जल वाला) है, या प्रस्तृतोदक (सम जल वाला) है, या क्षब्ध जल वाला है, अथवा अक्षुब्ध जल वाला है ?
१९ उत्तर-हे गौतम ! लवणसमुद्र उच्छितोदक अर्थात् उछलते हुए जल वाला है, किन्तु प्रस्तृतोदक-सम जल वाला नहीं है। क्षुब्ध जल वाला है, किन्तु अक्षुब्ध जल वाला नहीं है। यहां से प्रारम्भ करके जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र में कहा है, उसी प्रकार से जान लेना चाहिए, यावत् इस कारण हे गौतम ! बाहर के समुद्र पूर्ण, पूर्ण प्रमाण वाले, छलाछल भरे हुए, छलकते हुए और समभर घट रूप से अर्थात् परिपूर्ण भरे हुए घडे के समान तथा संस्थान से एक ही तरह के स्वरूप वाले हैं, किन्तु विस्तार की अपेक्षा अनेक प्रकार के स्वरूप वाले हैं। द्विगण द्विगुण प्रमाण वाले हैं, अर्थात् अपने पूर्ववर्ती द्वीप से दुगुने प्रमाण वाले हैं । यावत् इस तिर्छा लोक में असंख्य द्वीप समुद्र हैं । सब के अन्त में स्वयम्भूरमण समुद्र है । हे श्रमणायुष्मन् ! इस प्रकार द्वीप और समुद्र कहे
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