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________________ भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रिया - ६६३ भरे हुए घडे के समान वह सर्वत्र पानी से व्याप्त हो । उस सरोवर में कोई पुरुष, सैकडों छोटे छिद्रोंवाली तथा सैकडों बडे छिद्रोंवाली एक बडी नौका को डाल दे, तो क्या हे मण्डितपुत्र ! वह नाव, उन छिद्रों द्वारा पानी से भराती हुई पानी से परिपूर्ण भर जाती है ? वह पानी से लबालब भर जाती है ? उससे पानी छलकने लगता है ? तथा पानी से भरे हुए घडे की तरह सर्वत्र पानी से व्याप्त हो जाती है ? हाँ, भगवन् ! वह पूर्वोक्त प्रकार से भर जाती है । हे मण्डितपुत्र ! कोई पुरुष, उस नाव के समस्त छिद्रों को बन्द करदे, तथा नाव में भरे हुए पानी को उलीच दे तो क्या वह तुरन्त पानी के ऊपर आजाती है ? हाँ, भगवन् ! वह तुरन्त पानी के ऊपर आजाती है। विवेचन-इस विषय को विशेष सरल करने के लिए सूखे घास के पूले को अग्नि में डालने का और तपे हुए लोह कड़ाह पर डाली गई जलबिन्दू का, ये दो उदाहरण दिये गये हैं । इस प्रकार एजनादि रहित मनुष्य के शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद रूप अग्नि द्वारा कर्म रूप ईन्धन जल कर भस्म हो जाता है, तब उस जीव की मुक्ति हो जाती है। ___निष्क्रिय मनुष्य की ही अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है। यह बात नाव के तीसरे उदाहरण द्वारा भी बतलाई गई है । आत्म-संवृत पुरुष की गमनादि क्रिया तो क्या, किन्तु उसके नेत्र का उन्मेष और निमेष रूप क्रिया भी सावधानता पूर्वक होती है । इसलिए उसको केवल ईर्यापथिकी क्रिया लगती है । उपशान्त-मोह, क्षीण-मोह और सयोगी-केवली, इन तीन गुणस्थानों में रहे हुए जीव को एक सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है, क्योंकि वह सक्रिय है । उसे ईर्यापथिकी क्रिया लगती है । वह ईर्यापथिकी क्रिया प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट होती है अर्थात् प्रथम समय में वह कर्म रूप से उत्पन्न होती है, इसलिए वह 'बद्ध' कहलाती है और जीव-प्रदेशों के साथ उसका स्पर्श होता है, इसलिए वह 'स्पृष्ट' कहलाती है । दूसरे समय में उसका वेदन (अनुभव) हो जाता है, इसलिए वह 'वेदित •' कहलाती है । तीसरे समय में वह जीव-प्रदेशों से पृथक् हो जाती है, इसलिए वह 'निर्जीर्ण' कहलाती है । तीसरे समय में जब वह निर्जीर्ण हो जाती है, तो भविष्यत् काल में वह अकर्म' रूप हो जाती है। यद्यपि तीसरे समय में ही कर्म, अकर्म रूप हो जाता है, तथापि उस समय भाव-कर्म की • एक समय में उदीरणा और उदय संभवित नहीं है । इसलिए यहाँ 'उदीरित' शब्द का अर्थ 'वेदित' किया गया हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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