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________________ भगवती सूत्र - श. ३ उ. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि उत्ता सिया ।" इस पाठ का टीकाकार ने इस तरह से अर्थ किया है - " जैसे कोई जवान पुरुष, काम के वशवर्ती होकर जवान स्त्री के हाथ को जोर से दृढ़तापूर्वक पकड़ता है । जैसे गाड़ी के पहिये की धुरी आराओं से युक्त होती है ।" वृद्ध पुरुषों ने तो इस प्रकार व्याख्या की है— जैसे यात्रा (मेला) आदि के प्रसंग में बहुत से मनुष्यों की भीड़ होती है, वहाँ जवान स्त्री, जवान पुरुष के हाथ को दृढ़ता से पकड़ कर उसके साथ संलग्न होकर चलती है । वह उसके साथ संलग्न होकर चलती हुई भी उस पुरुष से अलग दिखाई देती हैं, उसी तरह से वे वैक्रियकृत रूप वैक्रिय करने वाले के साथ संलग्न होते हुए भी उससे पृथक् दिखाई देते हैं । जैसे बहुत से आराओं से युक्त नाभि (गाड़ी के पहिये की धुरी ) बिलकुल पोलार रहित होती है । इसी तरह से वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, अपने शरीर के साथ प्रतिबद्ध वैक्रिय कृत अनेक असुरकुमार देवों से और असुरकुमार देवियों से इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को ठसाठस भर देता है । Jain Education International ५३९ क्रिय करने के लिए वह असुरेन्द्र असुरराज चमर, वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होता है और संख्येय योजन तक लम्बा दण्ड निकालता ( बनाता ) है । अर्थात् वह दण्ड ऊंचे नीचे संख्येय योजन का लम्बा होता है और मोटाई में शरीर परिमाण मोटा होता है । उसके द्वारा कर्केतन, रिष्ट आदि रत्नों के जैसे पुद्गलों के ग्रहण करके उनमें से स्थूल पुद्गलों को झटक देता है और सूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करता है । शंका - रत्न आदि के पुद्गल तो औदारिक होते हैं । वैयि समुद्घात में तो वैक्रिय पुद्गल काम आते हैं । फिर यहाँ रत्नादि पुद्गलों का ग्रहण किस प्रकार किया गया है । समाधान-जो पुद्गल वैक्रियसमुद्घात में लिये जाते हैं, वे पुद्गल रत्नों सरीखे सारयुक्त होते हैं, इस बात को बतलाने के लिए यहाँ 'रत्न' आदि का ग्रहण किया गया है । इसलिए 'रत्नपुद्गलों' का अर्थ - ' रत्न सरीखे पुद्गल' ऐसा करना चाहिए । सारांश यह है कि वैयि समुद्घात में जो पुद्गल लिये जाते हैं, वे पुद्गल वैक्रिय पुद्गल ही होते हैं, किन्तु वे रत्नों सरीखे सार युक्त होते हैं । किन्हीं आचार्यों का तो ऐसा मत है कि - जब वैक्रिय समुद्घात द्वारा औदारिक पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं, तब वे औदारिक पुद्गल भी वैक्रिय पुद्मल बन जाते हैं । मूलपाठ में 'रयणाणं जाव रिट्ठाणं' यहाँ 'जाव' शब्द दिया है, उससे इतना पाठ और ग्रहण करना चाहिए । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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