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________________ भगवती सूत्र—शः ३ जं. १ चमरेन्द्र की ऋद्धि "वइराणं, वेरुलियाणं, लोहियक्खाणं, मसारगल्लाणं, हंसगब्भाणं, पुलयाणं, सोगंधियाणं, जोईरसाणं, अंकाणं, अंजणाणं, रयणाणं, जायरूवाणं, अंजणपुलयाणं, फलिहाणं ।" ५४० इसका अर्थ यह है-वज्र, वैडूर्य, लोहिताक्ष, मसारगल्ल, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक ज्योतिरस, अंक, अंजन, रत्न, जातरूप, अञ्जनपुलक और स्फटिक । ये सब रत्नों के भेद हैं। वैक्रिय करने वाला जीव, दण्ड निसर्ग द्वारा ग्रहण किये हुए यथाबादर (असार स्थूल) पुद्गलों को खंखेर देता है—झड़क देता है और यथासूक्ष्म (सार युक्त ) पुद्गलों को ग्रहण करता है अर्थात् दण्ड निसर्ग द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गलों को सामस्त्य से (सर्व प्रकार से ) ग्रहण करता है । शंका- यहाँ कहा गया है कि दण्ड निसर्ग द्वारा ग्रहण किये गये असार पुद्गलों को . खंखेर देता है और प्रज्ञापना सूत्र के छतीसवें पद की टीका में कहा है कि पहले बंधे हुए वैक्रिय शरीर नाम कर्म के यथास्थूल पुद्गलों को झाड़ देता है । अर्थात् उपरोक्त दोनों स्थलों में झटके जाने वाले पुद्गल भिन्न भिन्न बतलाये हैं। इसलिए इन दोनों स्थलों में परस्पर विरुद्धता कैसे नहीं आती है ? समाधान- ये दोनों बातें भिन्न-भिन्न है, इसलिए किसी प्रकार विरोध नहीं आता है । क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र की टीका में जो बात कही है, वह 'समुद्घात' शब्द का समर्थन करने के लिए अनाभोगिक (अनजानपने में होने वाली ) वैक्रिय शरीर नामकर्म के पुद्गलों की निर्जरा की अपेक्षा से कही गई है और यहाँ इच्छापूर्वक वैक्रिय करने विषयक वर्णन है, अतः उक्त दोनों बातों में परस्पर कोई विरोध नहीं है । चमरेन्द्र, इच्छित रूप बनाने के लिए दूसरी बार फिर समुद्घात करता है और इससे वह अनेक रूप बनाने में समर्थ होता है । वह वैक्रियकृत बहुत से असुरकुमार देवों और देवियों से इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को भर देता है । मूलपाठ में "आइण्णं वितिकिण्णं उवत्थडं, संथडं, फूड, अवगाढावगाढं" शब्द प्रायः "एकार्थक हैं और 'अत्यन्त रूप से भर देता है - इस अर्थ को सूचित करने के लिए आये हैं । असुरेन्द्र असुरराज चमर इतने रूपों की विकुर्वणा कर सकता है कि जिनसे तिर्च्छा लोक में असंख्य द्वीप और समुद्रों तक का स्थल भरा जा सकता है, किन्तु यह उसकी शक्तिमात्र है, विषयमात्र (क्रिया बिना का विषयमात्र ) है, किन्तु चमर ने सम्प्राप्ति द्वारा इतने रूपों की कभी विकुर्वणा की नहीं, करता नहीं और भविष्यत्काल में भी कभी करेगा नहीं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004087
Book TitleBhagvati Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages560
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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