________________
भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल सोमदेव
७१३
धूमिका, महिआ-महिका, रयुग्घाए-रजोद्घात, चंदोवरागा- चन्द्र ग्रहण, कपिहसिय-कपिहसित, वसणभूया-व्यसनभूत, अण्णाया-अज्ञात, असुआ-अश्रुत, अहावच्चा-अपत्य रूप ।
भावार्थ- इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की दक्षिण दिशा में जो ये कार्य होते हैं । यथा-ग्रहदण्ड, ग्रहमूसल, ग्रहजित इसी तरह ग्रहयुद्ध, ग्रहश्रृंगाटक, ग्रहापसव्य, अभ्र, अभ्रवृक्ष, सन्ध्या, गन्धर्वनगर, उल्कापात, दिग्दाह, जित, विद्युत, धूल की वृष्टि, यूप, यक्षोद्दीप्त, धूमिका, महिका, रजउद्घात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, चन्द्र परिवेष, सूर्यपरिवेष, प्रतिचन्द्र, प्रतिसूर्य, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य, कपिहसित, अमोघ, पूर्वदिशा के पवन, पश्चिम दिशा के पवन, यावत् संवर्तक पवन, ग्रामदाह, यावत् सन्निवेश-दाह, प्राणक्षय, जनक्षय, धनक्षय, कुलक्षय यावत् व्यसनभूत, अनार्य (पापरूप) तथा उस प्रकार के दूसरे भी सब कार्य देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोम महाराज से अज्ञात (नहीं जाने हुए) अदृष्ट (नहीं देख हुए) अश्रुत नहीं सुने हुए) अस्मृत (स्मरण नहीं किये हुए) तथा अविज्ञात (विशेष रूप से न जाने हुए) नहीं होते हैं। अथवा ये सब कार्य सोमकायिक देवों से भी अज्ञात आदि नहीं होते हैं।
देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोम महाराज को यह देव, अपत्य रूप से अभिमत ह । यथा-अंगारक (मंगल) विकोलिक, लोहिताक्ष, शनैश्चर, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, बुध, वृहस्पति और राहु ।।
देवेन्द्र देवराज शक्र के लोकपाल सोममहाराज़ की स्थिति तीन भाग सहित एक पल्योपम की है। और उसके अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम को होती है। इस प्रकार सोम महाराज, महाऋद्धि, यावत् महाप्रभाव वाला है। .
विवेचन-छठे उद्देशक में इन्द्रों के आत्म-रक्षक देवों का वर्णन किया गया है । अब इस सातवें उद्देशक में इन्द्रों के लोकपालों का वर्णन किया जाता है । इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहु समरमणीय भूमि भाग से ऊँचे चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, ताराओं से बहुत सैकड़ों योजन, हजारों योजन, लाखों योजन, करोड़ों योजन, और बहुत कोटाकोटि योजन ऊंचा जाने पर सौधर्म कल्प आता है । वह कल्प, पूर्व
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org