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भगवती सूत्र-श. ३ उ. ५ अनगार के अश्वादि रूप
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करके उनके द्वारा नाना प्रकार की क्रिया करवाना । 'विकुव्वई' का अर्थ है 'विकुर्वणा करना' अर्थात् नाना प्रकार के रूप बनाना । सामान्य रूप से देखने पर अभियोग और विकुर्वण । के अर्थों में अन्तर मालूम होता है । परन्तु वास्तव में क्रिया के फल की ओर देखा जाय, तो दोनों शब्दों के अर्थ में कोई भिन्नता नहीं है । क्योंकि अभियोग करनेवाला भी नवीन नवीन रूप बनाता है और विकुर्वणा करने वाला भी नवीन नवीन रूप बनाता है । इस अपेक्षा से अभियोग और विकुर्वणा में कोई अन्तर नहीं है । अभियोगादि करनेवाला मायी साधु, आभियोगिक देवों में उत्पन्न होता है । आभियोगिक देव, अच्युत देवलोक तक होते हैं। विद्या और लब्धि आदि से आजीविका करनेवाला साधु, आभियोगिकी भावना करता है। यथाः
मंता-जोगं काउं भूइकम्मं तु जे पजेति ।
साय-रस-इडिहेलं, अभियोगं भावणं कुणइ ।। अर्थ-जो जीव साता, रस और समृद्धि के लिए मन्त्र और योग करके भूति-कर्म का प्रयोग करते हैं, वे आभियोगिकी भावना करते हैं अर्थात् जो मात्र वैषयिक सुखों के लिये और स्वादु आहार की प्राप्ति के लिये मन्त्र साधना करता है और भूतिकर्म का प्रयोग करता है, वह आभियोगिकी भावना करता है । ऐसी आभियोगिकी भावना करने वाला साधु, आभियोगिक अर्थात् सेवक जाति के देवों में उत्पन्न होता है।
___ जो अनगार, उपर्युक्त प्रकार की विकुर्वणा करके फिर पश्चात्ताप करता है, वह अमायी बन जाता है। ऐसा अमायी साधु, आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो आराधक होता है और अनाभियोगिक देवों में उत्पन्न होता है ।
सेवं मंते ! सेवं भंते ! ॥
॥ इति तीसरे शतक का पांचवा उद्देशक समाप्त ॥
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