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६४८ भगवती सूत्र - श. ३ उ. २ असुरकुमारों का सौधर्मकल्प में जाने का दूसरा कारण
अवक्कमइ, जाव - बतीसइबध णट्टविहिं उवदंसेइ, जामेव दिसिं पाउए, तामेव दिसिं पडिगए । एवं खलु गोयमा ! चमरेणं असुरिंदेणं असुररण्णा सा दिव्वा देविडूढी लढा, पत्ता, जाव - अभिसमण्णागपा, ठिई सागरोवमं, महाविदेहे वासे सिज्झिहिड, जावअंतं काहि ।
भावार्थ- हे देवानुप्रियों! अपन सब चलें और श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करें यावत् उनकी पर्युपासना करें। ( भगवान् महावीर स्वामी फरमाते हैं कि हे गौतम ! ) ऐसा कह कर वह चमरेन्द्र चौसठ हजार सामानिक देवों के साथ यावत् सर्व ऋद्धि पूर्वक, यावत् उस उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे, जहाँ में था वहाँ आया । मुझे तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोला- “हे भगवन् ! आपका आश्रय लेकर में स्वयं अपने आप अकेला ही देवेन्द्र देवराज शत्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करने के लिये सौधर्मकल्प में गया था, यावत् आप देवानुप्रिय का भला हो कि जिनके प्रभाव से में क्लेश पाये बिना यावत् विचरता हूँ । हे देवानुप्रिय ! मैं उसके लिए "आप से क्षमा मांगता हूँ," यावत् ऐसा कह कर वह ईशानकोण में चला गया, यावत् उसने बत्तीस प्रकार की नाटक विधि बतलाई । फिर वह जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया ।
हे गौतम ! उस असुरेन्द्र असुरराज चमर को वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति और दिव्य देवप्रभाव इस प्रकार मिला है, प्राप्त हुआ है, सम्मुख आया है । चमरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम की है । वहाँ से चव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा ।
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असुरकुमारों का सौधर्मकल्प में जाने का दूसरा कारण ३० प्रश्न - किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा उड्ढं उपयंति,
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