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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
विश्रुत हुई। निवृत्ति कुल में अनेक मूर्धन्य मनीषी गण हुए हैं। विशेषावश्यक भाष्य के रचयिता जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण भी निवृत्ति कुल के थे। चौपन्न महापुरुषचरियम् ग्रन्थ के लेखक शीलाचार्य भी निवृत्ति कुल के थे और प्राचार्य अभयदेव ने जो नवांगी टीका लिखी, उस टीका के संशोधक द्रोणाचार्य भी निवृत्ति कुल के थे। इसी महनीय कुल के महर्षि गर्गर्षि ने सिद्ध को भागवती दीक्षा प्रदान की।
सिद्ध ने दीक्षानन्तर कठिन तपस्या की। जैन धर्म के सिद्धान्त-शास्त्रों का गहन अध्ययन/अभ्यास किया, और, सिद्धमुनि से सिद्धर्षि बन गया । 'उपदेशमाला' पर सरल भाषा में 'बालावबोधिनी' टीका लिखी।
एक दिन, उसके मन में विचार उठा--'मुझे अभी बहुत शास्त्राभ्यास करना है। विशेषकर, उग्र तर्कवादी बौद्धों के शास्त्रों का।' इसी विचार को क्रियान्वित करने के लिए, उन्होंने अपने गुरु से आज्ञा मांगी कि, वह किसी बौद्ध विद्यापीठ में जाकर उनके शास्त्रों का अभ्यास कर सके ।
गरु ने समझाया- 'शास्त्र अभ्यास करना तो अच्छा है। किन्तु, बौद्ध, अपने तर्कों से लोगों को भ्रमित कर देते हैं । फलतः, उनके यहाँ रहने से लाभ की बजाय हानि अधिक हो सकती है । अत: यह विचार छोड़ दो।' किन्तु, सिद्धर्षि की विशेष जिद देखकर, उन्होंने इस शर्त पर प्राज्ञा दी कि बौद्धों के तर्कों में उलझकर, तेरा मन डगमगाने लगे, तो यहाँ वापिस आकर, हमारा वेष हमें वापिस कर देना।'
सिद्धर्षि वचन देकर और वेष बदलकर, बौद्ध विद्यापीठ चले गये ।
सिद्धर्षि की मेहनत और प्रतिभा देखकर, बौद्धों ने उनके साथ सद्भाव रखा । धीरे-धीरे सिद्धर्षि पर उनके व्यवहार का और उनके कुतर्कों का असर होने लगा । फलत: कुछ ही दिनों बाद, उन्होंने बौद्ध-दीक्षा भी ले ली। जब, बौद्धों ने उन्हें अपना गुरु-पद देने का निश्चिय किया, तो उन्हें अपनी प्रतिज्ञा याद आ गई और अपना वेष वापिस करने जाने के लिए समय मांगा । सिद्धर्षि की इस ईमानदारी ने उनके बौद्ध गुरु को प्रसन्न कर दिया। उन्होंने भी प्राज्ञा दे दी।
सिद्धर्षि, जब अपने जैन दीक्षा गुरु के सामने पहुंचे तो उन्हें वन्दन नहीं किया और यों ही सामने जाकर खड़े हो गये ।
सिद्धषि के गुरु गर्गषि, उसका बौद्ध वेष देखकर दुःखी हुए, और सिद्धषि के ज्ञान-गर्व का अनुमान भी लगा बैठे। फलतः युक्ति से काम बनाने की इच्छा से, वे उठे और सिद्धषि को, 'ललित-विस्तरा' ग्रन्थ देकर बोले--'इस ग्रंथ को देखो, तब तक मैं चैत्यवन्दन करके आता हूँ।' इतना कहकर, अन्य साधुनों के साथ वे चले गये।
१. खतरगच्छ पट्टावली, देखिये जैन गुर्जर कवियो, भाग २,पृष्ठ ६६३.
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