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उपमिति-भव-प्रपंच कथा
पूरा जुगारी बना दिया। फलतः वह रात-रात भर जुआ खेलने में, या दुराचार/ वेश्यागमन में लीन रहने लगा। इसी वजह से, उसकी पत्नी धन्या, दु:खी और कृश हो चली थी।
इस मतभेद के आगे, प्राय : एक-सा ही घटनाक्रम है । तदनुसार, एक दिन, धन्या की सास ने उससे उसकी उदासी के बारे में पूछताछ की, तो वह चुप्पी लगा गई। किन्तु बहू की चुप्पी देखकर, सासु को और वेदना हुई। और, जिद करके पूछने लगी, तो धन्या, विलख-विलख कर रो पड़ी । आखिर, उसे बताना पड़ा कि, उसका पति, रात को काफी देर से घर आता है। उसकी सासु ने, उसे निश्चिन्त होकर सोने की अनुमति उस दिन दे दी और स्वयं जागते रहने का विश्वास भी।
___ इसी रात, तीसरे पहर, सिद्ध जब घर लौट कर आया, तो उसने घर का बन्द दरवाजा हर रोज की तरह खटखटाया।
दरवाजे की खट-खट आवाज सुनकर, उसकी माँ-लक्ष्मी ने पूछा-'इतनी रात को कौन दरवाजा खटखटा रहा है ?'
'मैं, सिद्ध हूँ।' सिद्ध ने जबाव दिया ।
लक्ष्मी ने बनावटी गुस्सा दिखलाते हुए पुन: कहा-'इतनी रात गये घर आने वाले सिद्ध को मैं नहीं पहचानती ।'
'फिर, मैं इतनो रात गये, कहां जाऊँ ?'–सिद्ध ने प्रश्न किया।
'जिस घर का दरवाजा, इस समय खुला हो, वहीं जा'-माँ ने, उसे ताड़ना/शिक्षा देने के उद्देश्य से कहा ।
_ 'ठीक है, माँ ! ऐसा ही करूगा'—ाहत स्वाभिमान भरे स्वर में, सिद्ध ने जबाव दिया और वहाँ से लौट आया।
गांव में घूमते-घूमते वह उपाश्रय के सामने पहुंचा, तो उसने देखा'उपाश्रय का दरवाजा खुला है।'
रात्रि का, थोड़ा सा ही समय शेष रह गया था। इसलिए, वहाँ ठहरे हुए साधु-जन जाग गये थे और अपनी-अपनी क्रियायें कर रहे थे ।
इन शान्त मुनिवरों को देख, वह विचार करने लगा-'धन्य है इनका जीवन ! जो ये धर्म की आराधना/साधना में अपना समय बिताते हैं। एक मैं हूँ, जिसे जुआ खेलने और दुराचार करने की वजह से, अपनी पत्नी व माँ के द्वारा अपमानित होना पड़ा ।....."अच्छा हुआ, सुबह का भूला, शाम को ठीक स्थान पर आ पहुँचा।'
यह विचार कर वह अन्दर गया, और वहाँ पर बैठे वृद्ध सन्त को वन्दन/ प्रणाम किया।
गुरु ने पूछा-'कौन हो भाई ? कहाँ से आये हो ?'
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