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उमास्वाति उत्तराध्ययन-कथित गुणपद को कायम रखकर कणादसूत्रों में दिखाई देनेवाले 'क्रिया' शब्द की जगह जैन-परम्परा-प्रसिद्ध 'पर्याय' शब्द रखकर द्रव्य का लक्षण बाँधते है-गुणपर्यायवद् द्रव्यम्-५ ३७ । अर्थात् जो गुण तथा पर्यायवाला हो वह द्रव्य है।
उत्तराध्ययन के २८वें अध्ययन की छठी गाथा मे गुण का लक्षण एगदव्वस्सिआ गुणा ( एकद्रव्याश्रिता गुणाः) अर्थात् जो एक द्रव्य के आश्रित हों वे गुण, इतना ही है । कणाद के गुणलक्षण में विशेष वृद्धि दिखाई देती है। वह कहता है-द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्-१. १. १६ । अर्थात् द्रव्य के आश्रित, निर्गुण और संयोग-विभाग में अनपेक्ष जो कारण नही होता वह गुण है। उमास्वाति के गुणलक्षण में उत्तराध्ययन के गुणलक्षण के अतिरिक्त कणाद के गुणलक्षण में से एक 'निर्गुण' अंश है। वे कहते है-द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः-५. ४० । अर्थात् जो द्रव्य के आश्रित और निर्गण हों वे गुण हैं।
उत्तराध्ययन के २८वें अध्ययन की दसवीं गाथा में काल का लक्षण वत्तणालक्खणो कालो ( वर्तनालक्षणः कालः) अर्थात् वर्तना काल का स्वरूप है, इतना ही है । कणाद के काललक्षण में 'वर्तना' पद तो नही है, परन्तु दूसरे शब्दों के साथ 'अपर' शब्द दिखाई देता है-अपरिस्मन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि-२. २६ । उमास्वाति-कृत काललक्षण में 'वर्तना' पद के अतिरिक्त जो दूसरे पद दिखाई देते है उनमें 'परत्व' और 'अपरत्व' ये दो शब्द भी हैं, जैसे कि वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य-५. २२ ।
ऊपर दिए हुए द्रव्य, गुण तथा काल के लक्षणवाले तत्त्वार्थ के तीन सूत्रों के लिए उत्तराध्ययन के अतिरिक्त किसी प्राचीन श्वेताम्बर जैनआगम अर्थात् अंग का उतना ही शाब्दिक आधार अब तक देखने मे नही आया, परन्तु विक्रम की पहली दूसरी शताब्दी के माने जानेवाले कुन्दकुन्द के प्राकृत वचनों के साथ तत्त्वार्थ के संस्कृत सूत्रों का कही तो पूर्ण और कहीं बहुत ही कम सादृश्य है। श्वेताम्बर सूत्रपाठ मे द्रव्य के लक्षणवाले दो ही सूत्र है : उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्-५. २९ तथा गुण
१. द्रव्य-लक्षण-विषयक विशेष जानकारी के लिए देखे-प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण, पृ० ५४; न्यायावतारवातिकवृत्ति, की प्रस्तावना, पृ० २५, १०४,११९ ।
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