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-पृ० १९,११४, ५९६ । नयचक्र का समय परंपरा-मान्य वि० ४८४ श्री जम्बूविजयजी ने स्वीकृत किया है-नयचक्र का प्राक्कथन प० २३, प्रस्तावना पृ० ६० । स्वोपज्ञ-भाष्य को यदि अलग रखा जाए तो तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध सीधी टीकाओ में आचार्य पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि सबसे प्राचीन है। पूज्यपाद का समय विद्वानों ने विक्रम की पाँचवी-छठी शताब्दी निर्धारित किया है। अतः कहा जा सकता है कि सूत्रकार वा० उमास्वाति विक्रम की पांचवी शताब्दी से पूर्व किसी समय हुए हैं ।
उक्त विचारसरणी के अनुसार वा० उमास्वाति का प्राचीन से प्राचीन समय विक्रम की पहली शताब्दी और अर्वाचीन से अर्वाचीन समय तीसरी-चौथी शताब्दी निश्चित होता है। इन तीन-चार सौ वर्षों के बीच उमास्वाति का निश्चित समय शोधने का काम शेष रह जाता है ।
३. समय-सम्बन्धी इस सम्भावना में और भावी शोध में उपयोगी पड़नेवाली कुछ विशेष बातें भी है जो उनके तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य के साथ दूसरे दर्शनों तथा जैन-आगम की तुलना में से निष्पन्न होती हैं। उन्हें भी यहाँ दिया जाता है। ऐसी बात नही है कि ये बातें सीधे तौर पर समय का ठीक निर्णय करने में इस समय सहायक हों, फिर भी यदि दूसरे ठोस प्रमाण मिल जाएँ तो इन बातों का महत्त्वपूर्ण उपयोग होने में कोई सन्देह नहीं है। इस समय तो ये बातें भी हमें उमास्वाति के उपर्युक्त अनुमानित समय की ओर ही ले जाती है।।
(क) जैन-आगम 'उत्तराध्ययन' कणाद के सूत्रो से पूर्व का होना चाहिए, ऐसी सम्भावना परंपरा-दृष्टि से और अन्य दृष्टि से भी होती है। कणाद के सूत्र प्रायः ईस्वी पूर्व की पहली शताब्दी के माने जाते है। जैन आगमों के आधार पर रचित तत्त्वार्थसूत्र में तीन सत्र ऐसे हैं जिनमें उत्तराध्ययन की छाया के अतिरिक्त कणाद के सूत्रों का सादृश्य दिखाई देता है। इन तीन सूत्रों में पहला द्रव्य का, दूसरा गुण का और तीसरा काल का लक्षणविषयक है।
उत्तराध्ययन के २८वें अध्ययन की छठी गाथा में द्रव्य का लक्षण गुणाणमासओ दव्वं (गुणानामाश्रयो द्रव्यम् ) अर्थात् जो गुणों का आश्रय वह द्रव्य, इतना ही है। कणाद द्रव्य के लक्षण में गुण के अतिरिक्त क्रिया और समवायिकारणता को समाविष्ट करके कहता है कि क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्-१. १. १५. । अर्थात् जो क्रियावाला, गुणवाला तथा समवायिकारण हो वह द्रव्य है । वा०
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