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संघ में होने की है। उच्चनागर नाम की कोई शाखा दिगम्बर सम्प्रदाय में हई हो, ऐसा आज भी ज्ञात नही है। दिगम्बर परम्परा में कून्दकुन्द के शिष्यरूप में मान्य उमास्वाति यदि वास्तव में ऐतिहासिक व्यक्ति हों तो भी उन्होंने तत्त्वार्थाधिगम शास्त्र लिखा था, यह मान्यता विश्वस्त आधार से रहित होने से बाद में कल्पित मालूम होती है ।
उक्त बातों में से तीसरी बात श्यामाचार्य के साथ उमास्वाति के सम्बन्ध की श्वेताम्बरीय सम्भावना को असत्य सिद्ध करती है, क्योंकि वाचक उमास्वाति अपने को कौभीषणि कहकर अपना गोत्र 'कौभीषण' बताते हैं, जब कि श्यामाचार्य के गुरुरूप से पट्टावली में उल्लिखित 'स्वाति' को 'हारित' गोत्र का कहा गया है । इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थप्रणेता उमास्वाति को उक्त प्रशस्ति स्पष्ट रूप से 'वाचक' कहती है, जब कि श्यामाचार्य या उनके गुरुरूप मे निर्दिष्ट 'स्वाति' नाम के साथ वाचक विशेषण पट्टावली में दिखाई नहीं देता। इस प्रकार उक्त प्रशस्ति एक ओर दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओ की भ्रान्त कल्पनाओं का निरसन करती है और दूसरी ओर वह ग्रन्थकार का सक्षिप्त किन्तु यथार्थ इतिहास प्रस्तुत करती है।
(क) वाचक उमास्वाति का समय वाचक उमास्वाति के समय के सम्बन्ध में उक्त प्रशस्ति में कुछ भी निर्देश नहीं है । समय का ठीक निर्धारण करनेवाला दूसरा भी कोई साधन अब तक प्राप्त नही हआ । ऐसी स्थिति में इस विषय मे कुछ विचार करने के लिए यहाँ तोन वातो का उपयोग किया जाता है--१. शाखानिर्देश, २. प्राचीन से प्राचीन टीकाकारों का समय और ३. अन्य दार्शनिक ग्रन्थों की तुलना।
१. प्रशस्ति में जिस 'उच्चै गरशाखा' का निर्देश है वह कानिकलो,
१. देखें-स्वामी समन्तभद्र, पृ० १५८ से आगे तथा प्रस्तुत प्रस्तावना का परिशिष्ट ।
२. देखे-प्रस्तुत प्रस्तावना मे पृ० २ की टिप्पणी ३ तथा परिशिष्ट । २. हारियगुत्तं साई च वंदिमो हारियं च सामज्जं ।। २६ ॥
-नन्दिसूत्र की स्थविरावली, पृ० ४९ ।
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