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शाखा के थे; उन उमास्वाति वाचक ने गुरु-परम्परा से प्राप्त श्रेष्ठ आहेतउपदेश को भली प्रकार धारण करके तथा तुच्छ शास्त्रों द्वारा हतबद्धि दु.खित लोक को देखकर प्राणियों की अनुकम्पा से प्रेरित होकर यह 'तत्त्वार्थाधिगम' नाम का स्पष्ट शास्त्र विहार करते हुए 'कुसुमपूर' नामक महानगर में रचा है। जो इस तत्त्वार्थशास्त्र को जानेगा और उसके कथनानुसार आचरण करेगा, वह अव्याबाधसुख नामक परमार्थ मोक्ष को शीघ्र प्राप्त होगा।"
इस प्रशस्ति में ऐतिहासिक घटना की द्योतक मुख्य छ: बातें हैं१. दीक्षागुरु तथा दीक्षाप्रगुरु का नाम और दीक्षागुरु की योग्यता, २. विद्यागुरु तथा विद्याप्रगुरु का नाम, ३. गोत्र, पिता तथा माता का नाम, ४. जन्मस्थान तथा ग्रन्थरचना के स्थान का नाम, ५ शाखा तथा पदवी की सूचना तथा ६. ग्रन्थकार तथा ग्रन्थ का नाम ।
___ यह मानने का कोई कारण नहीं कि यह प्रशस्ति जो कि इस समय भाष्य के अन्त में उपलब्ध होती है स्वयं उमास्वाति की रची हई नहीं है । डा. हर्मन जैकोबी भी इस प्रशस्ति को उमास्वाति की ही मानते हैं और यह उन्हीं के तत्त्वार्थ के जर्मन अनुवाद की भूमिका से स्पष्ट है। अतः इसमें जिस घटना का उल्लेख है उसे ही यथार्थ मानकर वा० उमास्वाति विषयक दिगम्बर-श्वेताम्बर परम्परा में चली आई मान्यताओं का स्पष्टीकरण करना इस समय राजमार्ग है।
ऊपर निर्दिष्ट छः बातों में से दिगम्बरसम्मत पहली और दूसरी बात कुन्दकुन्द के साथ उमास्वाति के सम्बन्ध को असत्य सिद्ध करती है। कुन्दकुन्द के उपलब्ध अनेक नामो मे से एक भी नाम ऐसा नही जो उमास्वाति द्वारा दर्शाए हुए अपने विद्यागुरु तथा दीक्षागुरु के नामो मे आता हो । इससे इस कल्पना को कोई स्थान नही कि कुन्दकुन्द का उमास्वाति के साथ विद्या अथवा दीक्षा-विषय मे गुरुशिष्य-भावात्मक सम्बन्ध था। उक्त प्रशस्ति में उमास्वाति के वाचक-परम्परा में तथा उच्चनागर शाखा मे होने का स्पष्ट कथन है, जब कि दिगम्बर मान्यता कुन्दकुन्द के नन्दि
नागरोत्पत्ति के निबन्ध मे रा० रा० मानशंकर 'नागर' शब्द का सम्बन्ध दिखलाते हुए नगर नाम के अनेक ग्रामों का उल्लेख करते है। इसके लिए छठी गुजराती साहित्यपरिषद् की रिपोर्ट द्रष्टव्य है।
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