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के हैं और उनका कोई भी प्राचीन विश्वस्त आधार दिखाई नही देता। विचारणीय बात तो यह है कि तत्त्वार्थसूत्र के पांचवी से नवीं शताब्दी तक के प्रसिद्ध और महान् दिगम्बर व्याख्याकारो ने अपनी व्याख्याओं में कही भी स्पष्ट रूप से तत्त्वार्थसूत्र को 'उमास्वाति' प्रणीत नही कहा है और न इन उमास्वाति का दिगम्बर, श्वेताम्बर या तटस्थ रूप से उल्लेख किया है। हाँ, श्वेताम्बर साहित्य मे विक्रम की आठवी शताब्दी के ग्रन्थो मे तत्त्वार्थसूत्र के वाचक उमास्वाति-रचित होने के विश्वसनीय उल्लेख मिलते हैं और इन ग्रन्थकारो की दृष्टि में उमास्वाति श्वेताम्बर थे, ऐसा मालूम होता है; परन्तु १६-१७वी शताब्दी के घर्मसागर की तपागच्छ की 'पट्टावली' को यदि अलग कर दिया जाय तो किसी भी श्वेताम्बर ग्रन्थ या पट्टावली आदि में ऐसा निर्देश तक नही पाया जाता कि तत्त्वार्थसूत्र-प्रणेता वाचक उमास्वाति श्यामाचार्य के गुरु थे ।
वाचक उमास्वाति की स्व-रचित अपने कुल तथा गुरु-परम्परा को दर्शानेवाली, लेशमात्र सदेह से रहित तत्त्वार्थसूत्र की प्रशस्ति के विद्यमान होते हुए भी इतनी भ्रान्ति कैसे प्रचलित हई, यह आश्चर्य की बात है । परन्तु जब पूर्वकालीन साम्प्रदायिक व्यामोह और ऐतिहासिक दृष्टि के अभाव की ओर ध्यान जाता है तब यह समस्या हल हो जाती है। वा० उमास्वाति के इतिहास-विषयक उनकी अपनी लिखी हुई छोटीसी प्रशस्ति ही एक सच्चा साधन है। उनके नाम के साथ जोड़ी हुई अन्य बहुत-सी घटनाए3 दोनो सम्प्रदायो की परम्पराओं मे चली आ रही है, परन्तु परीक्षणीय होने से अभी उन सबको अक्षरशः सही नहीं माना जा सकता । उनकी वह सक्षिप्त प्रशस्ति इस प्रकार है :
वाचकमुख्यस्य शिवश्रियः प्रकाशयशसः प्रशिष्येण । शिष्येण घोषनन्दिक्षमणस्यैकादशाङ्गविदः॥१॥ वाचनया च महावाचकक्षमणमुण्डपादशिष्यस्य । शिष्येण वाचकाचार्यमूलनाम्नः प्रथितकीर्तेः॥२॥ १. विशेष स्पष्टीकरण के लिए इसी प्रस्तावना का परिशिष्ट द्रष्टव्य है । २. देखें-प्रस्तुत प्रस्तावना मे पृ० १३ की टिप्पणी २ ।
३. जैसे कि दिगम्बरों में गृध्रपिच्छ आदि तथा श्वेताम्बरो मे पाच सौ ग्रन्थों के रचयिता आदि ।
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