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१. तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति
वंश दो प्रकार का होता है - जन्म-वंश और विद्या-वंश ।' जब किसी के जन्म के इतिहास पर विचार करना हो तब रक्त से सम्बद्ध उसके पिता, पितामह, प्रपितामह, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदि परम्परा को ध्यान में रखना होता है । जब किसी के विद्या ( शास्त्र ) का इतिहास जानना हो तब उस शास्त्र रचयिता के साथ विद्या से सम्बद्ध गुरु- प्रगुरु तथा शिष्यप्रशिष्य आदि गुरु-शिष्य परम्परा का विचार करना आवश्यक होता है ।
'तत्त्वार्थ' भारतीय दार्शनिक विद्या की जैन शाखा का एक शास्त्र है, अतः इसका इतिहास विद्या-वश की परम्परा में आता है । तत्त्वार्थ मे उसके रचयिता ने जिस विद्या का समावेश किया है उसे उन्होंने गुरुपरम्परा से प्राप्त किया है और उसे विशेष उपयोगी बनाने के उद्देश्य से अपनी दृष्टि के अनुसार अमुक रूप में व्यवस्थित किया है। उन्होंने उस विद्या का तत्त्वार्थ में जो स्वरूप व्यवस्थित किया, वह बाद में ज्यों का त्यों नहीं रहा । इसके अध्येताओं एवं टीकाकारों ने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार अपने-अपने समय में प्रचलित विचारधाराओं से बहुत-कुछ लेकर उस विद्या में सुधार, वृद्धि, पूर्ति और विकास किया है । अतएव प्रस्तुत 'प्रस्तावना' में तत्त्वार्थं और इसके रचयिता के अतिरिक्त वंश - लता के रूप में विस्तीर्ण टीकाओ तथा टीकाकारों का भी परिचय कराना आवश्यक है ।
तत्त्वार्थाधिगम-शास्त्र के प्रणेता जैनों के सभी सम्प्रदायों में प्रारम्भ से ही समानरूप में मान्य है । दिगम्बर उन्हें अपनी शाखा का और श्वेताम्बर अपनी शाखा का मानते आए है । दिगम्बर परम्परा में ये 'उमास्वामी' और 'उमास्वाति' नामों से प्रसिद्ध हैं, श्वेताम्बर परम्परा
१. ये दोनों वंश आर्य-परम्परा और आर्य - साहित्य मे हजारों वर्षों से प्रसिद्ध है । 'जन्म - वंश ' योनि सम्बन्ध की प्रधानता के कारण गृहस्थाश्रम - सापेक्ष है और 'विद्या-वंश' विद्या-सम्बन्ध की प्रधानता के कारण गुरुपरम्परा - सापेक्ष है । इन दोनों वंशों का पाणिनि के व्याकरणसूत्र मे स्पष्ट उल्लेख है, यथा 'विद्या- योनि-सम्बन्धेभ्यो वुञ्ज' ४. ३. ७७ । इसलिए इन दो वंशों की कल्पना पाणिनि से भी बहुत प्राचीन है ।
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