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में केवल 'उमास्वाति' नाम से । इस समय दिगम्बर परम्परा में कोई-कोई तत्त्वार्थशास्त्र-प्रणेता उमास्वाति को कुन्दकुन्द का शिष्य' समझते हैं और श्वेताम्बरों में थोड़ी-बहुत ऐसी मान्यता दिखाई देती है कि प्रज्ञापनासूत्र के रचयिता श्यामाचार्य के गुरु हारितगोत्रीय 'स्वाति' ही तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता उमास्वाति है। ये दोनों मान्यताएँ प्रमाणभूत आधार के बिना बाद में प्रचलित हुई जान पड़ती हैं, क्योकि दसवी शताब्दी से पहले के किसी भी विश्वस्त दिगम्बर ग्रन्य, पट्टावली या शिलालेख आदि में ऐसा उल्लेख दिखाई नहीं देता जिसमे उमास्वाति को तत्त्वार्थसूत्र का रचयिता कहा गया हो और उन्ही उमास्वाति को कुन्दकुन्द का शिष्य भी कहा गया हो। इस आशय के जो उल्लेख दिगम्बर-साहित्य में अब तक देखने मे आए है, वे सभी दसवीं-ग्यारहवी शताब्दी के बाद
१. देखें-स्वामी समन्तभद्र, पृ० १४४ तथा आगे।
२. आर्यमहागिरेस्तु शिष्यौ बहुल-बलिस्सही यमल-भ्रातरौ तत्र बलिस्सहस्य शिष्यः सातिः, तत्त्वार्थादयो ग्रन्थास्तु तत्कृता एव सम्भाव्यन्ते । तच्छिष्य श्यामाचार्य. प्रज्ञापनाकृत् श्रीवीरात षट्सप्तत्यधिकशतत्रये ( ३७६ ) स्वर्गभाक् ।
-धर्मसागरीय पट्टावली । ३. श्रवणबेलगोला के जिन-जिन शिलालेखो मे उमास्वाति को तत्त्वार्थरचयिता और कुन्दकुन्द का शिष्य कहा गया है, वे सभी शिलालेख विक्रम की ग्यारहवी शताब्दी के बाद के है । देखे–माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित 'जैन शिलालेख-संग्रह' मे नं० ४०, ४२, ४३, ४५, ५० और १०८ के शिलालेख ।
नन्दिसंघ की पट्टावली भी बहुत अपूर्ण तथा ऐतिहासिक तथ्य-विहीन होने से उसे आधार नही माना जा सकता, ऐसा पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने अपनी परीक्षा मे सिद्ध किया है । देखें-स्वामी समन्तभद्र, पृष्ठ १४४ और आगे। इससे इस पट्टावली तथा ऐसी ही अन्य पट्टावलियों में भी उपलब्ध उल्लेखो को अन्य विश्वस्त प्रमाणों के आधार के अभाव में ऐतिहासिक नही माना जा सकता।
तत्त्वार्थशास्त्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् ।
वन्दे गणीन्द्रसंजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ।। यह तथा इसी आशय के अन्य गद्य-पद्यमय दिगम्बर अवतरण किसी भी विश्वस्त तथा प्राचीन आधार से रहित है, अतः इन्हे भी अन्तिम आधार के रूप मे नही रखा जा सकता ।
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