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अज्ञान निग्रहस्थान
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अग्र
वोर्यान्तराय और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके आवरणों के सर्वघाती स्पर्धकोके उदयका सब कालमें अभाव है। प्रश्न-[फिर आगममें "सर्वघातो स्पर्धकोका उदयाभावी क्षय, उन्हीका सदवस्था रूप उपशम व देशघातीका उदय' ऐसा क्षयोपशमका लक्षण क्यों किया गया।] उत्तर-अन्य आचार्यों के व्याख्यान क्रमका ज्ञान करानेके लिए वहाँ पैसा प्ररूपण किया गया है। इसलिए स्ववचनविरोधमही आता। जो जिससे नियमत उत्पन्न होता है वह उसका कार्य होता है और वह दूसरा उसको उत्पन्न करनेवाला उसका कारण होता है। किन्तु देशपाती स्पर्धकोके उदयके समान सर्वघातो स्पर्धको के उदय-क्षय नियमसे अपनेअपने ज्ञानके उत्पादक नही हाते क्योकि,क्षीणकषायके अन्तिम समयमें अबधि और मन पर्यय ज्ञानावरणोके सर्वघाती स्पर्धकोके क्षयसे अवधिज्ञान और मन पयंय ज्ञान उत्पन्न होते हुए नही पाये जाते। दे. ज्ञान IIII मिथ्यात्वके कारण ही उसे मिथ्याज्ञान कहा जाता है। वास्तवमें ज्ञान मिथ्या नही होता।
४. अज्ञान नामक अतिचारका लक्षण भ. आ./मू. आ/६१३/८१३ अज्ञाना आचरणदर्शनात्तथाचरणं, अज्ञानिना उपनीतस्य उद्गमादिदोषदुष्टस्य उपकरणादे सेवनं वा ॥१३॥ -अज्ञ जोवोका आचरण दखकर स्वय भी बसा आचरण करना, उसमें क्या दोष है इसका ज्ञान न होना अथवा अज्ञानीके लाये, उद्गमादि दोषोंसे सहित ऐसे उपकरणादिको का सेवन करना ऐसे अज्ञानसे अतिचार उत्पन्न होते है। ५. अन्य सम्बन्धित विषय * अज्ञान सम्बन्धी शका समाधान-दे ज्ञान III/३ । * सासादन गुणस्थानमे अज्ञानके सद्भाव सम्बन्धी शका
दे. सासादन ३ । * मिश्र गुणस्थानमे अज्ञानके अभाव सम्बन्धो शका
दे मिश्र २। * ज्ञान व अज्ञान (मत्यज्ञान) मे अन्तर-दे, ज्ञान III/२/८1
* अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है - दे. मतिज्ञान २/४ । अज्ञान निग्रहस्थान-न सू /५/२/१७/३१६ अविज्ञात चाज्ञानम्॥
-वादोके - कथनका परिषद्ग-द्वारा विज्ञान किये जा चुकनेपर यदि प्रतिवादीको विज्ञान नही हुआ है तो प्रतिवादीका 'अज्ञान' इस नामका निग्रहस्थान हागा । (श्लो. वा ४/न्या. २४१/४१३/१३)। अज्ञान परिषह-स सि./६/६/४२७ अज्ञोऽय न वेत्ति पशुसम
इत्येवमाद्यधिक्षेपवचन सहमानस्य परमदुश्चरतपोऽनुष्ठायिनो नित्यमप्रमत्तचेतसो मेडद्यापि ज्ञानातिशयो नोत्पद्यत इति अनभिसदधत ज्ञानपरिषहजयाऽवगन्तव्य । -"यह सर्व है। कई नहीं जानता, पशुके समान है" इत्यादि तिरस्कारके वचनोको मैं सहन करता हूँ. मैने परम दुश्चर-तपका अनुष्ठान किया है, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, तो भी मेरे अभी तक भी ज्ञानका अतिशय नहीं उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार विचार नहीं करनेवालेके अज्ञान परिषहजय जानना चाहिए (रा. वा/8/8/२७,६१२/१३), (चा. सा-/१२२/१)।
* प्रज्ञा व अज्ञान परिषहमे भेदाभेद---दे. प्रज्ञा परिषहए। अज्ञानवाद
१. अज्ञानवादका इतिहास द.सा. २० सिरिवीरणाहतित्थे बहुस्सुदो पाससधगणिसीसो । मकडि
पूरणसाह अण्णाणं भास्र लोए । २०। -महावीर भगवान के तीर्थ में पार्श्वनाथ तीर्थकरके सघके किसी गणीका शिष्य मस्करी पूरन नाम-
का साधु था। उसने लोकमें अज्ञान मिथ्यात्वका उपदेश दिया। (गो. जी/जी प्र/१६)।
२. अज्ञानवादका स्वरूप स. सि./पं जगरूप सहाय/८/९/१५ की टिप्पणी- "कुत्सितज्ञानमज्ञानं
तद्यषामस्ति ते अज्ञानिका । ते च वादिमश्च इति अज्ञानिकवादिन । ते च अज्ञानमेव श्रेय' असच्चिन्त्यकृतकर्मबन्धवै फल्याव, तथा न ज्ञान कस्यापि कचिदपि वस्तुन्यस्ति प्रमाणमसर्ण वस्तुविषयत्वादित्याद्यभ्युपगन्तव्यः। -कुत्सित या खोटे ज्ञानको अज्ञान कहते है । वह जिनमें पाया जाये सो अज्ञानिक है। उन अज्ञानियोंका जो वाद या मत सो अज्ञानवाद है। उसे माननेवाले अज्ञानवादी है । उनकी मान्यता ऐसी है कि अज्ञान ही प्रेय है, क्योकि असत की चिन्ता करके किया गया कर्मोका बन्ध विफल है, तथा किसीको भी, कभी भी, किसी भी वस्तु में ज्ञान नही होता, क्योंकि प्रमाणके द्वारा असम्पूर्ण ही वस्तुको विषय करनेमें आता है । इस प्रकार जानना चाहिए। (स्थानाग सूत्र/अभयदेव टी/४/४/३४५) (सूत्रकृताग/शोलाक टी/१/१२) (नन्दिसूत्र/हरिभद्र टीका सू. ४६) (षड्दर्शनसमुच्चय/बृहद्वृत्ति/श्लो १)। गो.क./.८८६-८८७/१०६६ को जाणइ णव भावे सत्तमसत्तं दयं अव
चमिदि । अवयणजुदसत्ततय इदि भगा होति तेसट्ठी ॥८८६॥ - को जाणइ सत्तचऊ भाव सुद्धं खु दोणिपतिभवा। चत्तारि होति एवं अण्णाणीणं तु सत्तट्ठी ।।८८७॥ -जीवादिक नवपदार्थ नि विर्षे एक एकको सप्तभग अपेक्षा जानना। जीव अस्ति ऐसा कौन जाने है। जोव नास्ति ऐसा कौन जानै है । जोव अस्ति नास्ति ऐसा कौन जाने है। जीव अवक्तव्य ऐसा कौन जाने है। जीव अस्ति अवक्तव्य ऐसा कौन जाने है । जोव नास्ति अवक्तव्य ऐसा कौन जाने है। जीव अस्ति नास्ति अवक्तव्य ऐसा कौन जाने है। ऐसे हो जीवकी जाया अजोबादिक कहै तरेसठि भेद हो है।८८६॥ प्रथम शुद्ध पदार्थ ऐसा लिखिए ताकै उपरि अस्ति आदि च्यारि लिखिए । इन दोऊ पंक्तिनिकरि उपजे च्यारि भंग हो है। शुद्ध पदार्थ अस्ति ऐसा कौन जानै है। शुद्ध पदार्थ नास्ति ऐसा कौन जानै है। शुद्ध पदार्थ अस्ति नास्ति ऐसा कौन जान है । शुद्ध पदार्थ अवक्तव्य ऐसा कौन जान है। ऐसे च्यारि तो ए अर पूर्वोक्त तरेसठि मिलि करि अज्ञानवाद सडसठि हो है । भावार्थ-अज्ञानवाद वाले वस्तुका न जानना ही मान है। (भा पा./ जयचन्द/१३७ ।। भा पा /मू. व टी/१३५ “सत्तट्ठी अण्णाणी · ॥१३५॥ सप्तषष्टि- ज्ञानेन
मोक्ष मन्वाना मस्करपूरणमतानुसारिणा भवति। - सडसठ प्रकारके अज्ञान-द्वारा मोक्ष माननेवाले मस्करपूरण मतानुसारीको अज्ञान मिथ्यात्व होता है । (वि. दे.-मस्करी पूरन )
३. अज्ञानवादके ६७ भेद ध १/१.१,२/१०८/२ शाकल्य-वल्कल-कुथुमि-सात्यमुनि-नारायण-कण्वमाध्यदिन-मोद-पम्पलाद-बादरायण-स्वेष्टकृदै तिकायन-वसु-जे मिन्यादोनामज्ञानिकदृष्टीमा सप्तषष्टि ।-दृष्टिवाद अगमें-शाकल्य, वसल, कुथुमि, सात्यमुनि, नारायण, कण्व, माध्यदिन, मोद, पैप्पलाद, बादरायण, स्वेष्टकृत, ऐतिकायन, वसु और जैमिनि आदि अज्ञानवादियोके सडसठ मतो का वर्णन और निराकरण किया गया है। (ध. ११४,१,४५/२०३/५) (रा. वा./१/२०/१२/७४/५) (रा वा./ ८/१/११/१६२/७) (गो. जो /जी.प्र./३६०/७८०/१३) । गो. क /मू / ८८६-८८७/१०६६ नव पदार्थ सप्तभग-६३+ (शुद्धपदार्थ)x (आस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति, अव्यक्त -४ मिलिकरि अज्ञानवाद
सडसठ हो है । (मूलके लिए दे. शीर्षक स. २) अज्ञानी-दे मिथ्यादृष्टि । अग्र
१ विभिन्न अर्थों मेंध. १३/५,५,५०/२८८/६ चारित्राच्छु त प्रधानमिति अग्र्यम् । कथ ततः
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशे
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